*** “आज नदी क्यों इतना उदास है …….? ” ***
*** मैं नदी हूँ नदी ,
मुझे कुछ कहना है कहने दो……!
सदियों से बहती रही ,
साथ सब कुछ लेकर मैं चलती रही ;
आज भी मुझमें निर्मल नीर बह जाने दो….!!
मेरा बहना जीवन का एक अमिट प्रमाण है ;
उर्वर अनमोल इस जीवन की , सक्षम आधार है ।
मुझमें बहती सरस नीर की धार ,
न जाने कितने कुटुम्बों की है पालन हार ।
मैं.. प्यासे मन की प्यास बुझती हूँ ;
बंजर भू-भागों में हरियाली बन ,
हरित क्रांति हरीतिमा रंग में लहलहाती हूँ ।
लाखों नहीं ….कोटि-कोटि कहूँगी ,
चराचर परजीव-सजीव की जीवन-धारा बन जाती हूँ ।
*** मैं बह चली ,
उच्च पर्वत-शिखर और अगम्य घाटियों से ।
मैं बह चली ,
अभेद्य पाषाण चट्टान और विराट-विकराल कंदराओं से ।
न हुई मेरे गति में कोई रुकावट ,
और न हुई मुझमें कोई ,
असहनीय विचलन सी घबराहट-आहट ।
मुझमें मलिनता की , न थी कोई परत ,
मैं बह रही थी.. सतत् और अनवरत ;
पर…
अब न बहूँगी …..!
किसी सरकारी नियमावली रेट से ।
न रोको आज मुझे… ,
बांधों की सीमाओं में ;
न रोक मुझे , शहरीकृत अवसादों से ।
न कर मलिन मुझे….,
प्रतिष्ठान रासायनिक उत्पादों से ।
और…..
न कर सुपूर्द आज मुझे ,
उन स्वार्थ-आयामी , धनिक-बनिक ,
गंगा मलिन कारों से ।
विकास की कुल्हाड़ी से तुमने मुझे ,
न जाने कितनी बार खरोचा है ।
मुझ पर क्या बीती है….!
या फिर बीतने वाली है ,
क्या तूने….?
या किसी ने… कभी कुछ सोचा है ।
आधुनिकता की चकाचौंध…..,
या…
विकास की विचलित गति ने ;
शायद तुमको बहकाया होगा ।
या फिर…..
किसी स्वार्थंधता की महकती माया ने ,
शायद तुझे कुछ बरगलाया होगा ।
अब शायद नहीं कहूँगी…..,
हकीकत को बयां करती हूँ ;
अपनी वेदना को कहती हूँ
न कोई अपरिचित हैं ,
और न ही कोई है अनजान ।
हर कोई है चिर-परिचित ,
उससे…..
और हर कोई है संज्ञान ।
मेरी उद्गम है ,
नीलकंठ-स्वयं-भू की जटा-स्थल ।
होता है जिसका निर्णय ,
सर्वथा उचित अटल-सकल ।
लेकिन…….
आज तेरे कृत्य-कर्म ने ,
उसमें भी किया है अनुचित दखल ।
जहाँ भी मैं बहती हूँ……! ,
वह सरस सलिल…..,
है आज कितना गरल ।
शेष भागों में रह गई है रेत-परत ,
और
राजदारों के अनेक उच्च प्रासाद-महल ।
*** मैं नदी हूँ नदी…..!
आज मुझे कुछ कहना है कहने दो……!
सदियों से बह रही हूँ……!
आज भी मुझे सतत् अनवरत बहने दो….!!
मैं हूँ…..!
भिन्न-भिन्न सभ्यताओं की अमिट साक्षी ;
मैं हूँ नेक-अनेक….!
अक्षुण्ण परंपराओं की , जन्मदात्री…!!
है गवाह जिसकी वेद-पुराण…..!,
और…
कर गए है उद्घोष ;
कई ज्ञानी-विज्ञानी-चतुर्वेदी-शास्त्री ।
आज फिर से कहती हूँ मैं….,
मुझमें निर्मल नीर…..
सतत् अनवरत बह जाने दो…..!
होकर निर्बाध मैं……!
कुछ मुश्किलों से समझौता कर जाऊँगी ।
बहती हुई सरस सलिल से मैं…! ,
तेरी वैदिक संस्कृति-सभ्यता को ,
पुनः पुष्पित-पल्लवित कर जाऊँगी ।
ये मेरी ललक है…..! ,
या फिर…
कोई अपनी लालसा मुझे कुछ पता नहीं ;
लेकिन….सच कहती हूँ मैं…!
बनकर सरयू तट…
अयोध्या सी राम-राज्य बसाऊँगी ।
बनकर मोक्ष दायिनी क्षीप्रा सी… ,
उज्जैनी में ;
महाकालेश्वर जी की पद प्रक्षालन कर जाऊँगी ।
गंगोत्री से बहती हुई , गंगा बन… ;
पंच-केदार नाथ जी के चरण स्पर्श कर जाऊँगी ।
और
कांशी विश्वनाथ की दुर्लभ दर्शन कर ,
विश्व कल्याण की मंगल गीत भी गाऊँगी…
यमुनोत्री से निकलती हुई….
वृन्दावन यमुना तट पर ,
कृष्ण जी दुर्लभ लीला में शामिल हो जाऊंगी…!
और…..
फिर प्रयाग राज की संगम तट पर ,
हुई विलीन सरस्वती भगिनी से,
पुनः मिलन की निवेदन कर जाऊँगी ।
*** मैं नदी हूँ नदी…..!,
आज मुझे कुछ कहना है कहने दो…..!
सदियों से बहती रही हूँ मैं
आज भी मुझे तुम निर्बाध , सतत्-सरल ,
अनवरत्-अविरल बह जाने दो…!!
हे ” मनु ” के लाल….!!!
आज तुम इतना निष्ठुर न बनो …..!
मुझमें सरस और सरल गति की प्राण भरो…..!!
मेरी निरवता….! ,
निस्तब्धता…! होना ही ,
कुछ खतरों के संकेत है ;
अब मुझमें….! ,
निर्मल नीर की कोई गति नहीं ;
अब मेरी तल पर…. ,
केवल और केवल रेत ही रेत है ।
करतीं हूँ आज मैं तुम से अटुट वादा… ,
अभी भी है मेरी नेक इरादा…..!
अब न कोई उत्तर-दक्षिण-वासी होगा ;
होगा तो केवल ” भरत ” की भारत वासी होगा ।
और अंततः…….
फिर मैं भी अपने सागर से मिल जाऊँगी ……!!
फिर मैं भी अपने सागर से मिल जाऊँगी…….!!
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छत्तीसगढ़
०२/०८/२०२०