आज के नाम
विस्मयकारी ये बीमारी, पड़ गई जगत पर है भारी।
कोई दुश्वारी से दूर हुआ, कोई रह तन्हा, मजबूर हुआ।
है जगत रूका, इंसा काँपे, कर जोड़े निशा, भोर जागे।
कोई जीने की मोहलत माँगे, कोई बची-खुची दौलत ढाँपे
स्तब्ध देश बिन उन्नति के, है चकित देख मिटते टुकड़े
है आई कैसी विपदा है, इक रोग से हर जन ठिठका है।
अब भारत माँ भी सिसक पड़ी, हो रही गोद मेरी सूनी।
मंदिर- गुरूद्वारे-चर्च बंद, लम्हों को ढाँपे अंर्तद्वंद,
ममता छाती से चिपकाये, माँ जीने की मोहलत चाहे।
कल भोर न जाने क्या होगा, ये सोच पिता हर घबराए
खामोश ठहाकों के जलवे, अनबुझ पीड़ा से जन सहमें।
बूढ़ा जीवन भी थर्राता, ये रोग रूके न अब गहरे।
आनंद के झिलमिल तारों संग, आशाओं से मन-नभ भर दो
अपनों संग सपने फिर बुन लें, जीवन -चिंता, तम, सब हर लो।
जो छूट गये अंजाने में, या टूट चुका जिनका बचपन,
एक बार वो फिर जी लें जीवन, बंद मौत का हो बेबस क्रंदन।
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हे ईश ये लीला बंद करो, अब देश रोग से मुक्त करो।
पालक सृष्टि निर्माता तुम, विध्वंस के कारक लुप्त करो।।
रश्मि लहर
लखनऊ