आज के इस हाल के हम ही जिम्मेदार…
आज के इस हाल के हम ही जिम्मेदार…
आज जो इस हाल पर हम रो रहे हैं।
बीज घातक भी हमीं तो बो रहे हैं।
कर रहे हैं रात दिन हम पाप कितने।
झेलने हैं कौन जाने ताप कितने।
कौन जो सच की डगर हमको दिखाए,
पल रहे हैं आस्तीं में साँप कितने।
काल घातक बैठ सर मँडरा रहा नित,
चैन की वंशी बजा हम सो रहे हैं।
चल रही हैं रात-दिन दूषित हवाएँ।
आज मन को भा नहीं पातीं फिजाएँ।
कौन जाने कौन सा पल आखिरी हो,
भोगनी होंगी हमें कितनी सजाएँ !
हैं नहीं दो पल सुकूं के पास अपने,
जिंदगी को बोझ सा हम ढो रहे हैं।
जलकणों में धूलिकण नित मिल रहे हैं।
फेंफड़ों में शूल बन जो चुभ रहै हैं।
हो चुकी है आज मैली शुभ्र गंगा,
गंदगी के ढेर हर सूं दिख रहे हैं।
मूँद बैठे आँख ही हा! रोशनी से,
कालिखों से मुँह सना हम धो रहे हैं।
स्वार्थ हद से बढ़ रहे हैं, हैं कहाँ हम ?
साज सारे पास पर, लगते हमें कम।
चाह ये बस हों भरे भंडार अपने,
भूख से बेहाल कोई, क्या हमें गम।
तुल्य पशु के हाय क्यों हम हो रहे हैं ?
प्रेम करुणा भाव से थे नित भरे हम,
विश्व सारा था हमें परिवार जैसा।
हों गुँथे माणिक्य मनके तार में ज्यों,
था हमें जग कीमती उस हार जैसा।
हैं धरोहर जो हमारी संस्कृति के,
मूल्य सारे आज वो हम खो रहे हैं।
आज भाई को न भाता भ्रात अपना।
हो गया सीमित सिकुड़ घरबार अपना।
बँट गए हैं आज तो माता-पिता भी,
बंधुता का भाव है अब मात्र सपना।
गम समाया मोतिया बन जिन नयन में,
बीन छिटके मोतियों को पो रहे हैं।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
साझा संकलन ‘भावों की रश्मियाँ’ से