आज के इन्सान को गरजते देखा।
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आज के इन्सान को
गरजते देखा।
बेवजह हमहरते देखा।
अपनी ही गलती पर
शर्मिन्दगी की जगह
चिखते चिल्लाते देखा।
अपनी गलती को
ढकने के लिए
नीच की श्रेणी से भी
नीचे गिरते देखा।
चोरी करके भी
सीनाजोड़ी करते देखा।
आज के इन्सान को
गरजते देखा।
खड़े थे दो पैरों पर,
लेकिन लड़खड़ाते देखा।
ये क्या संस्कार देगें
अपने बच्चों को।
जिन्हें खुद ही
संस्कारहीनता से
नीचे गिरते देखा।
बच्चों के भविष्य को
स्वार्थलिप्त अधर में
डूबते देखा।
खुद की नजरों में
उसे गिरते देखा।
आज के इन्सान को
गरजते देखा।
बेवजह हमहरते देखा।
?- लक्ष्मी सिंह?