आज की स्त्री
आज की स्त्री
आंखों में विश्वास
भावों में संवेदना
विचारों में प्रकाश
फैसलों का बोझ उठाती
वह करती है सड़क पार
कभी नहीं लगा उसे
डगमगा जाये गे पांव
चल सकती है वह
बिना पुरुष पेड़ की छांव
वह चलाती है कार
उड़ाती है हवाई जहाज
साथ ही करती है
अगली पीढी तैयार
रख कर कंधे पर बंदूक
करना पड़े कर देती है
रण में दुश्मन को हालाक
पर पुरुष अब भी उसे नहीँ समझता
न उसकी बदली सोच को
न उसकी अस्मिता को
करता है उस पर वार
कभी नहीं उठ पाता
अपने अहम् के बवाल से
अपनी देह के उबाल से
बन कर रह जाता
अपने लिये एक सवाल।