आज का मतदाता
जिसे हम कहते हैं मतदाता,
असल में उसको,
कुछ समझ न आता ।।
पहले पैसे लेने का,
फिर मुर्गा दारू नाच पार्टी का,
इंतजाम करवाता है ।।
जब सब सेट हो जाता है,
तभी वोट देता और दिलवाता है ।
जब वोट देकर वो आते हैं,
तब दारू मुर्गा मँगवाते हैं ।।
नशे में आकर,वो यहाँ पर,
खुद नाचते,नचवाते हैं ।
अपनी पगड़ी भी यहाँ पर,
दुसरों के,पैरों में चढ़ाते हैं ।।
पहले नेता, बाद में मतदाता,
बारी-बारी से ये दोनों,
सभी के पैर पकड़ता ।।
मतदाता यहाँ पर कहता है,
बिना पैसों के काम न चलता है ।।
ऐसी-ऐसी बातें सुनकर,
स्वाभिमानी नेता होते हैरान ।
पैसेवाले नेता को,ऐसे मतदाताओं से
मिटता है बहुत थकान ।।
स्वाभिमानी मतदाता ही देते हैं,
यहाँ अपने मन से वोट ।
नहीं तो बिकने वाले यहाँ,
खूब लूटते हैं नोट ।।
नेता बिना मतदाता,
और मतदाता बिना नेता का,
है यहाँ क्या काम ।।
नेता और मतदाता दोनों,
केवल फायदे के लिए,
लेते हैं एक-दूजे का नाम ।।
नेता खुद को मालिक समझता,
मतदाता बनता नौकर ।
कोई किसी से कम नहीं है,
समझदार बनता जोकर ।।
नेता और मतदाता का पहचान,
अब रह गया केवल वोट तक ।
मतदाता भी कोई कम नहीं है,
वो भी पहचानेंगे नोट तक ।।
मतदाता की नजरों में नेता,
बस जीता हुआ ही होता है ।
जो हार गया इस रणभूमि में,
वही पाँच साल रोता है ।।
कवि – मनमोहन कृष्ण
तारीख – 25/01/2021
समय – 09:56 ( रात्रि )
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