आज अचानक जीवन मेरा हो उठा हायॐ पराया रे
आज अचानक जीवन मेरा हो उठा हायॐ पराया रे
पल वो जेहन में है कौंधा जिसने स्वप्न दिखाये थे।
अथक परिश्रम करके हारा फिर भी सपनों से हारा।
वर्षा‚ जाड़ा‚ गर्मी सारा मन – तन‚ पर झेला था।
सुविधाओं की त्याग ललक को कर्म और कत्र्तव्य किया।
पास दृष्टि के विधिवत रक्खा लक्ष्य लाल से इंगित कर।
डाल हाथ में हाथ मूर्तिवत कभी मौन मैं रहा नहीं।
कभी न सकुचाए अन्तर से कर्मभूमि में मै उतरा।
बार–बार कर भेद तर्क को मैं दिमाग को परे रखा।
दिल दिमाग के तीक्ष्ण द्वन्द्व में मैंने दिल का साथ दिया।
आंखों से कहकर मैंने ही इस दिमाग को मनवाया।
मौन‚ और विद्रोही होकर मैनै मुझको छोड़ा था।
अब जब कौंध रहा है सब कुछ विवश मैं शीश झुकाए रे।
‘मैं ‘ अब उद्धत मुझे छोड़कर जाने को आतुर सा हूँ।
पुनः द्वार पर आया देखूँ ‘ मै’ं मुझको मंत्र सिखाने को ।
चाहत को अनजाना कह दूँ नज़र चुराकर विदा करूँ।
और रूलाई‚ क्षोभ‚ लोभ सब दूर हटे कुछ सदा करूँ।
पंखों वाली चिड़िया के पर कुतर दिये थे मैंने ही।
सारे नभ को चीर–चार कर नष्ट किये थे मैंने ही।
अब उड़ान जैसे शब्दों का अर्थ समझ के करना क्या?
पथ‚पथचर जैसे शब्दों का अर्थ समझ के करना क्या?
अंधियारों की बस्ती में आकर ढूँढ़ उजाला थक जाना।
खुद का शव खुद ही घसीटना और हाँफना‚थक जाना।
किरन नहीं अब कहीं दिखेगा और नहीं बिखरेगा ही।
जिसको विधि ने विधिवत् सौंपा‚सोचाॐयही करेगा क्या?
आज अचानक जीवन मेरा हो उठा हायॐ पराया रे ॐ
अरूण प्रसाद