आजकल…
कब से तेरी उम्मीद के, चिराग़ जलाए बैठे हैं
हर शाम इस तरह से, गुज़ार रहे हैं आजकल…
टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा जीवन का हर तार
सुलझनें की बजाय, उलझते जा रहे हैं आजकल…
बेशक हमें कुबूल है, उनकी बेतर्क-ए-वफा
देने वाली सजा की वजह, छुपा रहे हैं आजकल…
तेरा हर सितम मेरी नजर में, अदा-ए-प्यार था
दुनिया कहती है वहम में, जिए जा रहे हैं आजकल…
वो जिनकी मोहब्बत के, तौर ज़ुदा थे दुनिया से
जानें क्यूँ गुमनाम सी जिंदगी, बिता रहे हैं आजकल…
अपने तमाम रास्तों की मंज़िल समझा तुम्हें
भटके हुए से मुसाफिर, नजर आ रहे हैं आजकल…
मौकापरस्ती के दौर में, हम तुमसे मोहब्बत कर बैठे
ठगा-ठगा सा हर पल, खुद को पा रहे हैं आजकल…
-✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’