आखिर वो भी क्या दिन थे
आखिर वो भी क्या दिन थे, जब हम रोते हुए किलकते हुए माँ की गोद मे, विस्तर पर शू-शू कर लेते थे।माँ उफ भी नही करती थी उसे हंसा हंसा कर, सता सता कर, रुला रुला कर पागल कर देते थे फिर भी मा उफ भी नही करती थी।
आखिर वो भी क्या दिन थे जब हम अपनी जिद को पूरा करने की लिए किसी भी हद तक जाते थे और पिताजी खुद रोकर , गुलामी, मंजूरी और साहूकारो से कर्ज लेकर हमारी हर जिद को पूरा करते थे हमे ये भी याद नही की वो भोजन की व्यवस्था कैसे करते होगे
फिर भी हमे बार बार याद आते हैं की वो भी क्या दिन थे।
आखिर वो भी क्या दिन थे जब हमस्कूल जाते समय लल्लो, कल्लो, बंटी, बबली से लड़ ते और स्कूल मे खेलते खाते और ग्रह कार्य न करने पर सहम कर बहाना बनते और फिर कुछ समय बाद भूलकर खेलने लगते और इकदूजे को लोचते काटते और मास्टर जी से एक दूजे की खातिर दारी करवाते। फिर बस बही बात याद आती है कि वो भी क्या दिन थे
आखिर वो भी क्या दिन थे जब हम दिल्लगी और गुरु को दिल से लगाते थे और खजाने, मालामाल, शिमला, सचिन, को दिल से लगाकर छुपछुप कर खाते थे। और घंटो घंटो पेड़ की डालियो पर खेलते थे और दादाजी का डंडा चुराकर सुई धागा का खेल खेलते थे और मां बाप को बहुत ही सताते थे बस दिल से याद आते हैं की वो भी क्या दिन थे।
आखिर वो भी क्या दिन थे जब हम दिल मे छुपी हुई प्यारी सी अभिलाषा से सपनो मे उससे मिलने जाते नीम की छाँव मे बैठे रुचि के साथ बातें करते और रानी साहिबा की तरह उसे पलको पर बिठाकर रूठकर , मनाकर, हंसकर, जताकर, बाद मे मुस्कुराकर छुपते छुपाते बातें करते और किसी के आने पर घबरा जाते और साँझ को डरते हुए घर आ जाते आखिर वो भी क्या दिन थे।
✍कृष्णकान्त गुर्जर धनौरा