आखिर क्यों ?
न जाने शादियों की ये दुकानें क्यों हैं
जब मन हीं मन से मिले नहीं तो
गुण मिलान की,फरमाइशें क्यों हैं ?
पी के रीत से जी लेना हीं
जीवन का मकसद नहीं
अपनी पंखों को, आप हीं खोलो
नारी हो तुम, अबला नहीं ।
प्रकृति हो, संस्कृति खुद हीं
वीणा भी हो और गदा तुम्हीं
वंदनीय हो तुम ब्रह्म लोक में
अन्नपूर्णा भी तुम हीं बनी ।।
फिर क्यों तुम संग जो बन पाया
सबने तुझ संग वही किया
तू दहेज़ में जली, तू बेच दी गई
कभी तोड़ दी गई, कभी जोड़ दी गई
तू छोड़ दी गई, दम घोंट दी गई !!
पर सच तो है कि
इहलोक और परलोक की
गंगा सी हो, बैतरणी तुम्हीं !!