आखिर उन पुरुष का,दर्द कौन समझेगा
आखिर उन पुरुष का,दर्द कौन समझेगा
जिन्हें बिना मर्जी,बाँध दिया जाता है
किसी ऐसी,जीवनसंगिनी के ,साथ जो
ना कभी उनके आँखों का दर्द,समझ पाती है
ना ही चेहरे पर आए भाव ,लोग उन्हें जाने
समझे बगैर ,दहेज लोलुप ,और ना जाने
किन किन नामों से नवाजते हैं
ससुराल वाले ,उन्हें गुलाम ,और पत्नी उन्हें
ऐशोआराम का सामान समझती है
कभी कभी ,बहुत दुख होता है ,देखकर ऐसी स्थिति
बेचारा जिंदगी भर कमाने की मशीन बन
खुद के लिए जीना भूल जाता है
खुद से प्यार करना भूल जाता है जिम्मेवारियां
उठाते उठाते असमय बूढ़ा हो जाता है पर कभी
अपनी मन की नहीं कर पाता हर इंसान को
अपने विषय में सोचने, कुछ करने की
स्वतंत्रता होनी चाहिए अपने मन की व्यथा
की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए
पुरुष कठोर नहीं होते बहुत कोमल होते हैं हृदय से
सिर्फ प्रदर्शित नहीं करते आँखें उनकी भी
नम होती है, दिल उनका भी रोता है, पर चश्मे के
पीछे छिपा जाते हैं सारा दर्द।