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20 Feb 2020 · 1 min read

आख़िर किसलिए

मेरी एक नई ग़ज़ल –

ख़ुशनुमा सी शाम आख़िर किसलिए।
प्यार का पैग़ाम आख़िर किसलिए।

क्यूँ मुखौटे डालते मासूम बन
छुप रहे अस्क़ाम आख़िर किसलिए।

उंगली हम औलाद पर कैसे करें
खूं हमारा ख़ाम आख़िर किसलिए।

की न जब हमने जफ़ाएं इश्क में
हो गए बदनाम आख़िर किसलिए।

वो उगेगा जिसको बोया था कभी
किस्सा है यह आम आख़िर किसलिए।

है ग़रीबी ख़ुद ब ख़ुद ही इक सज़ा
लग रहे इल्ज़ाम आख़िर किसलिए।

झूठ क्यूँ दुनिया का यूँ सरताज है
सच हुआ नाकाम आख़िर किसलिए।

रंजना माथुर
अजमेर(राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

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