*आंदोलन (हास्य व्यंग्य)*
आंदोलन (हास्य व्यंग्य)
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आंदोलन है ,तो विपक्ष है । बिना आंदोलन के विपक्ष ऐसा ही है मानो रेगिस्तान में पैदल कोई मुसाफिर घूम रहा है। क्या इमेज रह जाती है ! आंदोलन एक प्रकार से रेगिस्तान में ऊँट की सवारी का काम करता है । इस पर चढ़कर विपक्षीगिरी करने में आनंद आता है ।
आंदोलन के लिए कोई विषय होना चाहिए । यह आंदोलन की पहली और सबसे जरूरी शर्त है। अतः जब विपक्ष के नेता बैठते हैं ,तब उनका पहला काम यही होता है कि भैया ! आंदोलन के लिए कोई विषय ढूंढो ! तुरत-फुरत कुछ लोग उठ कर ताजा अखबार ले आते हैं । सब उसके पन्ने पलटते हैं । कोई न कोई नवीनतम मुद्दा आंदोलन करने के लिए मिल जाता है । आंदोलन का मुद्दा मिलते ही विपक्षी नेताओं के चेहरे खुशी से भर उठते हैं । मानो किसी भूखे को भरपेट भोजन की थाली उपलब्ध हो गई हो । आठ -दस दिन के लिए इससे आंदोलन का काम चलता रहता है । एक दिन धरना ,तीन दिन प्रदर्शन ,उसके बाद अखबारों में चर्चा । लेकिन तदुपरांत फिर वही आंदोलन के विषय की खोज ! फिर से विपक्षी नेतागण बैठते हैं । आंदोलन का विषय ढूंढते हैं ।
कुछ विषय ऐसे हैं जो कई दशक के बाद भी हमेशा ताजे बने रहते हैं । आंदोलन के मामले में उन्हें केवल कॉपी-पेस्ट करना पड़ता है अर्थात पुराने अनुभवों का लाभ उठाते हुए जैसा पिछले दशकों में हुआ ,उसी को उसी अंदाज में दोहरा दिया जाता है । बैलगाड़ी अथवा ताँगे पर बैठकर शहर की व्यस्त सड़कों से गुजरना पेट्रोल-डीजल के महंगे भावों के खिलाफ आंदोलन का दशकों पुराना चित्र रहा है । बस फोटो में नेताओं के चेहरे बदल जाते हैं । प्याज का भाव देर-सवेर कभी तो बढ़ेगा ! इंतजार करो । जब भी बढ़े, आंदोलन का मुद्दा अपने आप मिल जाएगा ।
एक बार विपक्षी दलों की मीटिंग में किसी ने कहा कि पाँच साल में सोने के भाव डेढ़ गुना बढ़ गए हैं ,यह मुद्दा कैसा रहेगा ? सबने उसे डाँटा और कहा कि सोने चाँदी और हीरे जवाहरात के मूल्यों पर कभी आंदोलन होते हैं ,जो तुम इस विषय को लेकर बैठ गए ? प्रश्न को उठाने वाला बेचारा समझ नहीं पा रहा था कि जब सारे विपक्षी नेताओं को सोने चाँदी और हीरे जवाहरात एकत्र करने का ही शौक बराबर बना रहता है तो इनके बढ़ते हुए भावों पर दुख प्रकट करना गलत कैसे कहा जा सकता है ?
कई बार सरकार कोई अच्छा या बुरा कदम उठाती है और उसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया जाता है । इसमें क्योंकि सरकार को अपना कदम पीछे उठाने वाली माँग रहती है ,अतः आंदोलन लंबा चलता है । सरकार के अच्छे कदम के विरोध में लंबा आंदोलन इस दृष्टि से बढ़िया है कि न सरकार विपक्ष की मांग मानेगी और न विपक्ष अपने आंदोलन को खत्म करेगा । इस तरह आंदोलन भी जीवित रहता है तथा विपक्ष भी जीवित रहता है।
आंदोलन के लंबे चलने से कई लाभ होते हैं । पहला लाभ तो यह है कि हर हफ्ते आंदोलन का कोई नया विषय ढूँढने के परिश्रम से विपक्षी नेतागण बच जाते हैं। वरना मीटिंग का पहला एजेंडा “अगला आंदोलन किस विषय पर किया जाए”- यही रहता है। दूसरा यह कि अगर किसी विषय पर आंदोलन लंबा चल रहा है तब सारे नेता लोग टहलने के लिए इधर-उधर घूमे और उसके उपरांत पुनः आंदोलन-स्थल पर आकर बैठ गए । जब किसी का मन कोठी से उचाट खाया तो वह आंदोलन-स्थल पर आ गया । दो-चार घंटे भाषण देकर चला गया ।
लंबे आंदोलनों में पार्टियों का आंदोलन-प्रकोष्ठ भी बनाया जा सकता है अर्थात किसी को आंदोलन-अध्यक्ष किसी को आंदोलन-मंत्री किसी को आंदोलन-उपाध्यक्ष बना दिया । दस-बीस और आंदोलन-पदाधिकारी बन गए । सबको लेटर – पैड उपलब्ध करा दिया । नेतागिरी चलती रहेगी।
लंबे आंदोलनों में आंदोलन-स्थल एक तरह का पिकनिक-स्पॉट बन जाता है । विपक्ष के आनंद का केंद्र-बिंदु ! अगर आंदोलन दो-चार साल चलता रहा तब आंदोलन-स्थल पर खोमचे वाले ,ढाबे वाले ,आइसक्रीम-कुल्फी वाले तथा चाय कॉफी के स्टाल लगने शुरू हो जाते हैं । अगर कहीं दस-बीस साल आंदोलन चले तो वहां अस्थाई कालोनी जिसे आंदोलन-कॉलोनी का नाम दिया जा सकता है ,वह भी निर्मित करने पर विचार हो सकता है।
एक तरह की रौनक आंदोलन-स्थल पर चारों तरफ बिखर जाती है । विपक्ष का मजमा लगता है और विपक्ष इस तरह एक लंबे आंदोलन के द्वारा लंबे समय तक अपने विपक्ष होने की छाप राजनीति पर छोड़ देता है ।
लंबे आंदोलनों से कई बार लंबे कद के नेता पैदा होते हैं । कई बार कुछ नेता आंदोलनों की उपज होते हैं लेकिन वह सौभाग्य से चुनाव जीतकर सत्ता पक्ष में आ जाते हैं । अब उनको आंदोलन की आवश्यकता नहीं रहती । जो लोग अभी मंत्री नहीं बने हैं , वह आंदोलन करते रहते हैं।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451