आंदोलन से साक्षात्कार!
यह किस्सा है तब का,
जब मैं प्रशिक्षु बना पौलीटैकनिक का,
जिस पाठ्यम में प्रवेश लिया,
नाम उसका का कामर्शियल प्रैक्टिस था,
दो वर्षीय यह डिप्लोमा,
इस से पूर्व जिसने भी किया,
किस सेवा में इसका उपयोग होगा,
यह भी वह जान ना पाया,
अभी तक एक ही बैच निकला था इसका,
नौकरी में कहीं भी समायोजन नहीं हो पाया था उनका,
किस पद पर इसकी नौकरी मिले इससे,
पंजीयन सेवायोजन में हो कैसे,
अभी तक इसे मान्यता नहीं दी गई थी,
और यही समस्या सबसे बड़ी थी,
डिप्लोमा करके घर बैठ जाना,
नौकरी का ना था कोई ठिकाना,
किसी एक विषय पर विशेषज्ञता नहीं थी,
टाइपिस्ट,स्टैनो ग्राफर, एकाउंटेंट तक की शिक्षा इसमें थी,
अपने पूर्व वर्तियों की बेकारी देख कर,
अपने से वरिष्ठों के संग चर्चा कर कर,
निकल नहीं पा रहा था कोई समाधान,
तब आंदोलन ही था एक मात्र निदान,
पहले पहल तो हमने यह जाना,
कहां कहां हो रहा है इस का पढ़ाना,
पता चला चार स्थानों पर इसका संचालन था,
इलाहाबाद, नैनीताल, अल्मोड़ा, एवं उत्तर काशी जहां पर मैं था,
फिर एक दूसरे से संपर्क गया साधा,
संगठन बनाया नाम से उनैइदा,
यूं पी सरकार से संवाद शुरू किया,
जन प्रतिनिधियों से मुलाकात का दौर शुरू हुआ,
लखनऊ में जाकर शिक्षा मंत्री से मिले,
उन्हें अपने लिखे गए ज्ञापन सौंप दिये,
लेकिन समाधान की राह ना निकली,
हम पर अनुशासन हीनता की कलम चल पड़ी,
अनुपस्थित होने का नोटिस थमा दिया,
घर वालों को भी निष्कासन का डर दिखा दिया,
हर तिकड़म जो शासन प्रशासन कर सकते थे,
करने लग गए थे,
हम भी अब पीछे हटने पर अड गये थे,
काफी दिनों तक यह नूराकुश्ती का चक्र चला,
तब जाकर लखनऊ दरबार से पत्र निकला,
जिसमें यह दर्शाया गया,
टाइपिस्ट से लेकर स्टैनो ग्राफर तक,
एकाउंट में सहायक एकाउंटेंट तक,
इसमें मान्यता प्राप्त है,
और इन तीनों के पदों के लिए,
इसकी आहर्यता बरकरार है,
इस तरह से हमारा समाधान हो गया,
और आंदोलन से भी साक्षात्कार हो गया।
(यादों के झरोखे से)