आँखों में छाई हो हवस
** आँखों में छाई हो हवस **
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जब आँखों में छाई हो हवस,
दरिंदे नहीं करते तनिक तरस।
नोच डालते हैं कंचन सा बदन,
लूटते अस्मत कर तहस नहस।
वासना की आँधी में बह कर,
वहशी चूस लेते हैं जीवन रस।
जिस्म को देते असहनीय दर्द,
शांत हो जाते हैं लूट कर अर्श।
मन मर्मछेदन में जाता है टूट,
मिटे न दुख,चाहें बीते कई वर्ष।
कलियाँ कभी नहीं खिल पाए,
कोपलें तोड़कर गिराते हैं फर्श।
मनसीरत दरिंदगी की हद पार,
उखाड़ते जड़ से छीनकर हर्ष।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)