अ-तिथि (हास्य कविता)
सुबह पांच बजे
मोबाईल की
घंटी बजी
उधर से आवाज आई
” आ रही हूँ ”
फोन हाथ से
छूटता छूटता बचा
कड़ाके की सर्दी में
पसीने से तरबतर हुआ ।
मैने कहा :
” कौन हो माई ?
सुबह सुबह क्यो
बढा रही हो रक्तचाप?”
उसने कहा :
” अतिथि हूँ
जिसकी हर बात
“अ” निश्चित होती है
उसकी आने की कोई तिथि
नहीं होती
वह कैसे आऐगी
बैलगाड़ी घोडागाडी
रेल बस हवाईजहाज
या फिर हरफनमौला हुई
तो पैदल भी आ जाऐगी ।”
खैर साहब दिल पर पत्थर
रख कर कर रहे
अतिथि का इन्तजार
घड़ी की सूई जैसे जैसे
खिसकती रही
बैचैनी हमारी बढती रही
हम लगे हिसाब लगाने
पत्नी तो मायके में है
साली को बीवी भेजेगी नहीं
पडोसन तो अभी अभी दिखी
हा कालेज की
सोमया माया या रोमया
हो तो मजा आ जाऐ
एक बार दिल बल्ले बल्ले
हो गया ।
बीवी के नहीँ होने पर
बारह बजे उठने वाले हम
सात बजे उठ गये
फिर लगे हम चाय नाश्ते का
करने इन्तजाम
ठीक दस बजे
आ कर रूका एक आटो
उसमें से उतरी हमारी मोटी
हम घबराएं फिर मुस्कुराएँ
पकडा उसका बेग
अंदर आऐ छिपाया
रात का पेग
सब कुछ देख कर बोली वह :
” काला है कुछ दाल में
पर पकेगी नही अब
दाल तुम्हारी ”
अब हो गये हम रुआंसे
कसम से आ गये आंसू
फिर कह डाली कहानी
अतिथि वाली
वह बोली :” मेरे जानू
वह अ- तिथि में ही हूँ
आवाज बदल कर
रही थी बोल ।
अब मैं नत मस्तक हो गया
और अतिथि सेवा में लग गया ।
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल