अहिल्या
अब अहिल्या पतित नही होगी,
खुद के स्वाभिमान को जानेगी,
पत्थर की शिला नही बनेगी,
कोई श्राप नही स्वीकारेगी ।।
जो दोषी है उनको दण्ड मिले,
वो बेकसूर दंड न पाएगी,
गौतम मुनि की नारी,
अब पतिता न पुकारी जायेगी,
वो कौशल्या सी पावन होगी,
प्रभु को गोदी में खिलाएगी,
गंगा सी निर्मल होगी,
निर्मल अविरल बहती जायेगी ।।
अनुसुइया जैसी संकल्पित,
देवों को शिशु बनाएगी,
नारी क्या कर सकती है,
ये सारे जग को बतलाएगी।।
सीता जैसा दृढ़ निश्चय लेकर,
पति के पग से पग मिलाएगी,
छोड़ के सब महल अटारी,
हंस कर वन के कांटे खायेगी ।।
अब भूल गई है अपना बल,
अब कब तलवार उठाएगी,
झांसी वाली रानी न बनी तो,
कैसे सम्मान जगत में पाएगी।।
वो कैसे दुर्बल हो सकती,
जो जग को सदा चलाती है ।
नारी तो स्वमं ही श्रष्टा है,
नर को सबल बनाती है,
पुरुषों के कदम मिला कर,
अब तो चलती जायेगी,
अब शिक्षा के पंख लगा कर,
अंबर को छू आयेगी ।।