अस्तित्व
हम मनुष्यों का अस्तित्व है ही क्या ?
एक कठपुतली के सिवा हम है ही क्या ?
ना जाने कब विधाता हमारी डोर खींच ले ,
और हमारा खेल खत्म।
हम मनुष्यों की श्वासें है लहरों जैसी ,
आती जाती सागर की लहरों जैसी ,
ये आना जाना कब रुक जाए विधाता जाने ,
और हम निष्प्राण।
हम मनुष्यों का जीवन है एक सफर की भांति,
बिल्कुल रेल गाड़ी के सफर की ही भांति ,
कब पढ़ाव आ जाए और हमें उतरना पड़े,
और हमारा सफर खत्म ।
हम तो महज फूल है तरह तरह के ,
विधाता के सुन्दर उपवन के ,
कब वो माली ( विधाता) आए ,
और हमें तोड़ के ले जाए बारी बारी ,
किसको पता?
वास्तव में हम हैं ” उसके ” जलते दीए,
जितना उसमें तेल होगा उतनी ही देर जलेंगे दीए,
यह “उसकी” मर्जी कब किस दीए को बुझा दे ,
और हम हो जाएं बस स्याह धुंआ।
हम तो रह रहे है एक किराए के मकान में,
जितनी भी देर रहेंगे इस मकान में ,
मकान मालिक (ईश्वर) के हुकुम अनुसार,,
इस मकान में रहेंगे,फिर छोड़ के जाना पड़ेगा ।
हमारे जीवन का अस्तित्व कुछ भी नहीं,
हम एक शून्य के सिवा कुछ भी नहीं,
वह हमें पूर्ण करे या अपूर्ण उसकी मर्जी ,
सच है यही हम उसके ( परमात्मा ) के सिवा
कुछ भी नहीं।