अस्तित्व
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
बरस उठी बदरी बन बादल से ।
आस्तित्व खोजती वो क्षण में ।
उतर धरा पर जीवन कण में ।
छितरी बार बार बिन साजन के ।
बाँटा जीवन अवनि तन मन में ।
बहती चली फिर नदिया बन के ।
मिलने साजन सागर के तन से ।
लुप्त हुई अपने साजन तन में ।
जा पहुँची साजन सागर मन में ।
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
….. विवेक दुबे “निश्चल”©…..
.. blog post 27/3/18