अस्तित्व
शीर्षक- अस्तित्व
खो गई हूँ,
कहीं वक़्त के गर्त में,
है क्या अस्तित्व मेरा,
कहाँ थी जड़े मेरी,
कहाँ तरु पनपा है।
मैं – मैं नहीं हूँ,
कौन हूँ मैं, कहाँ हूँ मैं।
बंध गई हूँ,
कितने ही सिरों से,
क्यों खोल नही पाती,
मैं सारी गांठें।
कहाँ ढूंढू मैं खुद को,
किस ओर है राह मेरी।
क्या नारी होना अभिशाप है?
अगर नहीं तो,
क्यों अस्तित्व खोया है मेरा?
ढूंढ लूं उस क्षण को,
जब,
टुकडों टुकडों में,
बंटना शुरू हुई थी।
शायद पा जांऊ कहीं खुद को,
और बुन लूं फिर से,
कल के स्वप्न।।।
– शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )