असुर सम्राट भक्त प्रहलाद – पूर्वजन्म की कथा – 03
सृष्टि के आरम्भकाल की कथा है कि, ब्रह्माजी के मानसपुत्र योगिराज सनक आदि चारों भाई, एक समय भगवद्भक्ति के समुद्र में गोते लगाते हुए तीनों लोक और चौदहों भुवन में भ्रमण करते हुए, आनन्दकन्द भगवान् लक्ष्मीनारायण की लीलामय अपार शोभासमन्विता ‘वैकुण्ठपुरी’ में जा पहुँचे। यद्यपि वैकुण्ठपुरी की शोभा और सुषमा का वर्णन पुराणों और पाञ्चरात्र ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है, तथापि उसकी शोभा एवं सुषमा वर्णनातीत है। उसकी न तो तुलना हो सकती है और न उसके अलौकिक विषयों का वर्णन लौकिक शब्दों में किया ही जा सकता है। अतः वैकुण्ठपुरी की शोभा एवं सुषमा का वर्णन न करके, उसके ‘निःश्रेयसवन’ की भी प्रशंसा न करके, हम अपने चरित्रनायक के चरित्र से सम्बन्ध रखनेवाली कुछ कथाओं का ही वर्णन करेंगे।
वैकुण्ठपुरी में भगवान् लक्ष्मीनारायण जिस स्थान में निवास करते हैं, उस स्थान के द्वारपाल ‘जय’ और ‘विजय’ नाम के पुण्यश्लोक भगवान् के पार्षद हैं। जिस समय सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार चारों भाई, भगवान् लक्ष्मीनारायण के निवासस्थान पर उपस्थित हुए, उस समय एक विलक्षण घटना घटी। जिस वैकुण्ठपुरी में स्वयं भगवान् जगन्माता महालक्ष्मीजी के सहित निवास करते हैं, जिस पुरी के सारे चराचर जीव निर्विकार और भगवन्मय हैं और भगवान् के जो पार्षद भगवत्स्वरूप गुणातीत हैं, उस पुरी के उस स्थान में उन्हीं भगवान् के पार्षद ‘जय’ और ‘विजय’ में सहसा न जाने क्यों मानवी ही नहीं, दानवी स्वभाव की छाया प्रतीत होने लगी और जो योगिराज अपने सरल एवं सुन्दर स्वभाव के लिये आरम्भ से प्रसिद्ध हैं, जिनमें क्रोधादि विकारों का अस्तित्व ही नहीं है और जो सदैव पाँच वर्ष के बालक के वेष में रह तीनों लोक और चौदहों भुवन में परिभ्रमण करते हुए न जाने कितने पतित-पामर प्राणियों को अपने दर्शनों से कृतकृत्य किया करते हैं, उनके हृदय में भी सहसा क्रोध की ज्वाला धधक उठी, जिससे एक अघटित घटना हो गयी।
जिस समय योगिराज सनकादि महर्षि वैकुण्ठ के द्वार पर पहुँचे, उस समय जय और विजय ने उनको अभ्यन्तर प्रवेश करने से मना किया। इसमें सन्देह नहीं कि, भगवत्प्रेरणा से जिस प्रकार महामाया प्रकृति देवी सारी सृष्टि की रचना कर डालती है, मानव-जीवन के लिये उदाहरणस्वरूप दिव्य लीलाओं को दिखलाने लगती है और—
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥
–( सप्तशती स्तोत्र ‘मार्कण्डेयपुराण’ )
अर्थात् “ज्ञानियों के निर्विकार चित्तों को भी वह महामाया भगवती (प्रकृति) देवी मोह में डाल देती है।” इस वचन के अनुसार ही निर्गुण एवं निर्विकार पुरी में और भगवत्स्वरूप भगवान् के पार्षदों में यह भ्रम उत्पन्न हो गया कि, ये परमभागवत बालस्वरूप सनकादि महर्षि, ब्रह्मण्यदेव भगवान् लक्ष्मीनारायण के परमप्रिय आराध्यदेव नहीं, साधारण छोकरे हैं! और मोहवश उन्होंने उन महर्षियों को अभ्यन्तर-प्रवेश से रोक दिया। इतना ही नहीं, भगवान् की महामाया ने, चराचर की रचना करनेवाली प्रकृति देवी ने, उन परमभागवत योगिराज सनकादिकों को भी नहीं छोड़ा और उनकी योगशक्ति तथा भगवद्भक्ति को भी एक बार पछाड़ ही तो दिया। जय और विजय कोरे द्वारपाल ही न थे, प्रत्युत उनमें परमभागवत होने के लक्षण भी विद्यमान थे, उन्हीं जय-विजय ने योगिराज सनकादि महर्षियों को भगवत्-मन्दिर में प्रवेश करने से रोका। उस समय उन महर्षियों के निर्विकार शरीर में भी विकार उत्पन्न हो गया और परमभागवतों के सिद्धान्त-वचन—
अहं तु नारायणदासदासदासस्य दासस्य च दासदासः।
अन्येभ्य ईशो जगतो नराणां तस्मादहं चान्यतरोऽस्मिलोके।।
अर्थात् “मैं नारायण के दास के दास के दास के दास के दास के दास का दास हूँ और भगवद् दासों के अतिरिक्त अन्य पुरुषों का स्वामी हूँ अतएव लौकिक पुरुषों से विलक्षण मैं (भागवत) पुरुष हूँ”— का ध्यान नहीं रहा और क्रोध के वश हो, महर्षियों ने भगवान् के द्वारपालों को, भगवान् के पार्षदों को शाप देकर महामाया प्रकृति देवी को विजय-माल पहना दी। महर्षियों ने कहा, “हे द्वारपालो! तुम लोग निर्विकार वैकुण्ठपुरी में निवास करने के योग्य नहीं हो। भगवान् के चरण-कमल का रज तुमसे दूर है। क्योंकि इस सत्त्वगुणप्रधान धाम में, इस निर्विकार बैकुण्ठपुरी में और भगवान् के सन्निधिवर्ती पार्षदों में, ऐसा तमोगुण आ गया है कि, तुम लोगों ने हमको पहचाना नहीं और साधारण बालकों के समान हम लोगों को भगवान् के दर्शन करने से रोक दिया है। ये बातें इस दिव्य देश की नहीं और न भगवद्भक्तों की हैं। अतएव हे मूर्खो! तुम लोग शीघ्र ही इस वैकुण्ठधाम से भ्रष्ट होकर आसुरी योनियों को प्राप्त होओ।” महर्षियों के घोर शाप को सुन कर द्वारपालों के होश-हवास गुम हो गये। इस प्रकार महामाया ने जब अपना काम कर डाला तब पुनः सभी के होश दुरुस्त हो गये। द्वारपाल शाप को सुन कर थर-थर काँपने लगे और महर्षि भी शाप देकर स्तब्ध-से हो गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया और वैकुण्ठपुरी में, शान्तिमयी वैकुण्ठपुरी में अशान्तिमय शब्द सुनाई देने लगे। ज्यों ही शाप का समाचार भक्तवत्सल भगवान् के कानों में पहुँचा त्यों ही भगवान् अपनी ब्रह्मण्यता का परिचय देते हुए, महालक्ष्मीसहित पाँव-पिया दे उसी स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ योगिराज सनकादि महर्षि खड़े थे।
जगन्माता महालक्ष्मी के सहित भगवान् नारायण को अपने सामने पाँव-पियादे आते देख कर महर्षियों के हृदय मुग्ध हो गये, वे अतृप्त नयनों से एकटक उनके मधुर दर्शन करने लगे। भगवान् के वर्णनातीत, शोभाधाम स्वरूप को देख कर, उनकी चतुर्भुजी मनोहर मूर्ति की मन्द मुसकान की छटा को निहार कर उस समय सभी लोग स्तब्ध-से हो गये। सब-के-सब उपस्थित प्राणी, अलौकिक एवं अकथनीय आनन्दसागर में डूबने लगे सनकादि महर्षियों ने आरम्भ में तो साष्टाङ्ग प्रणाम किया; किन्तु भगवान् के दर्शनों से उनकी तृप्ति नहीं हुई और उन्होंने एक साथ ही भगवान् के सम्पूर्ण अङ्गों के दर्शन करने के लिये समाधि लगा ली और दिव्य दृष्टि द्वारा वे भगवान् के विराट् रूप का दर्शन करने लगे। इच्छानुसार दर्शन कर लेने के पश्चात् महर्षियों ने भगवान् की स्तुति आरम्भ की। सनकादि महर्षियों ने कहा– “हे दयामय, जगदाधार, सर्वान्तर्यामी परमात्मन्! आपकी महिमा अपार है। मनुष्य आपकी माया का पार नहीं पा सकते और न आपके सर्वव्यापी सुन्दर स्वरूप को अपने चर्म-चक्षुओं से देख ही सकते हैं। विरले ही भाग्यवान् प्राणी होंगे, जो आपके इस अपूर्व दर्शन से अपने आपको कृतकृत्य बनाने का अवसर प्राप्त करते हैं; किन्तु आज हम लोगों पर आपकी कृपा है, अपार अनुकम्पा है और न जाने हम लोगों के कौन-से सुकृत का फल प्राप्त हुआ है, जो आपने हम लोगों को अपने वास्तविक रूप का दर्शन दिया है। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि आप सारे चराचर के स्वामी, सबके नियन्ता और सबके अन्तर्यामी हैं; फिर भी आपका यह अलौकिक स्वरूप, यह विराट् दर्शन, आपकी ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ की महिमा, सहज में नहीं समझ पड़ती। इसके लिये न जाने कितने ज्ञानीजन जन्म-जन्मान्तर तक तपस्याएँ करते और फिर भी सफल-मनोरथ नहीं होते हैं। नाथ! यद्यपि अद्यावधि हम लोगों के हृदय में कभी क्रोध का आविर्भाव नहीं हुआ था और इस महाशत्रु से हम लोग बचे थे। हम लोगों के हृदयकमल में इस पापी क्रोधरूपी काँटे को कभी स्थान नहीं मिला था, किन्तु न जाने क्यों आज यह अघटित घटना हो गयी और हम लोगों का हृदय सहसा क्रोध से कलुषित हो गया। हृदयकमल में क्रोधरूपी काँटे पैदा हो गये, अतः हम लोग बड़े ही चिन्तित हैं कि, अपने स्वामी को, अपने आराध्यदेव को हृदयकमल में कैसे स्थान दें। अपने हृदयकमल को कैसे निष्कण्टक बनावें और उसमें अपने इष्टदेव को कैसे पधरावें। इसमें सन्देह नहीं कि, पुष्पपराग का प्रेमी मधुकर काँटों से आच्छादित पुष्पों की सुगन्ध को ग्रहण करता और उस पर बारम्बार मँडराया करता है। इसी प्रकार आप हम लोगों के भक्तिभावपूर्ण हृदयकमल में क्रोधरूपी काँटों के होते हुए भी निवास करेंगे। यद्यपि ऐसा हम लोगों का दृढ़ विश्वास है, तथापि हम लोगों का उत्साह मन्द पड़ रहा है और इस बात के लिए पश्चात्ताप से चित्त चिन्तित हो रहा है कि, इस निर्विकार पुरी में हम लोगों ने क्रोध करके अपने हृदयकमल को क्यों कण्टकाकीर्ण बना लिया। भगवन्! हम लोग अपने आप अपने किये पर पछता रहे हैं और इसके लिये आपसे क्षमा माँगते हैं।”
महर्षियों की स्तुति सुन कर ब्रह्मण्यदेव, भक्तवत्सल भगवान् ने कहा “हे तपोधन महर्षियो! आज आप लोगों के आनन्दमय दर्शन पाकर मैं लक्ष्मी के सहित कृतकृत्य हो रहा हूँ। आज समूचे वैकुण्ठसहित हम लोगों के सौभाग्य का सूर्य उदय हुआ है कि, साक्षात् वेदस्वरूप आप चारों महर्षियों ने कृपया यहाँ पधारने का कष्ट उठाया है। तपोधन! आपने क्रोध के सम्बन्ध में जो ग्लानियुक्त वचन कहे हैं, यह आपकी कृपा है, सरलता है और हम लोगों पर आपकी दया है किन्तु आपने जो कुछ किया है समुचित किया है और आपका ऐसा करना अत्यावश्यक था। हम लोगों को अत्यन्त खेद है कि हमारे इन जय और विजय द्वारपालों ने, जो इस समय चित्रलिखे से खड़े हैं, आप लोगों को द्वार पर रोक कर हमारा घोर अपकार किया है। हमारे सेवक होकर जो हमारे आराध्यदेव महर्षियों को हमारे पास आने से रोकें, उनसे बढ़कर मूर्ख और दूसरा कौन होगा? शास्त्रों में लिखा है कि स्वामी की कीर्ति को दूषित करने वाले सेवक सदैव त्यागने योग्य होते हैं। जैसे शरीर को कोढ़ नष्ट कर डालता वैसे ही स्वामी की सुकीर्ति-चन्द्रिका में अविवेकी सेवक कलंक समान और उसको नष्ट करने वाले होते हैं। मेरे पास रहते इन दोनों द्वारपालों को न जाने कितना सुदीर्घ काल बीत गया, किन्तु इनके हृदय में मेरे आराध्यदेव ब्राह्मणों का महत्त्व नहीं प्रवेश कर सका। इसके लिये मुझे स्वयं लज्जा मालूम होती है और मुझे आन्तरिक दुःख है। मैं ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानता हूँ। ब्राह्मणों ने सृष्टि का कितना बड़ा उपकार किया है, कैसे-कैसे ज्ञान फैलाये हैं और उनके द्वारा मेरे वैदिक धर्म और मेरे यश एवं भागवत-सम्प्रदाय का कैसा अभ्युदय हुआ है। इसको मैं भली भाँति जानता हूँ। महर्षिगण! मैं ब्राह्मणों के हजार कटुवचनों को सहने के लिये तैयार रहता हूँ और स्वप्न में भी उनका अपमान करना घोर पाप समझता हूँ। ब्राह्मणों के दर्शन करके उनके चरणों की धूलि को अपने सिर पर चढ़ाने में मैं अपना सौभाग्य एवं गौरव समझता हूँ। अतएव जो ब्राह्मणों का अपमान करते हैं, वे मेरे कभी प्रिय नहीं हो सकते। जो लोग ब्राह्मणों की सेवा नहीं करते, उनके कडुवे वचनों को सहन नहीं करते, प्रत्युत उत्तर देने की चेष्टा करते हैं, वे महामूर्ख और अपने स्वार्थ को लात मारने वाले प्राणी हैं। मैं तो ब्राह्मणों को ही अपना गुरु, अपना इष्टदेव और पूज्यतम समझता हूँ। तब उनके अपमान करनेवाले मूर्ख की सेवाओं को मैं कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? ब्राह्मणों की प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है और उनकी अप्रसन्नता में ही मैं अप्रसन्न होता हूँ। अतएव लक्ष्मीसहित मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे इन द्वारपालों ने आपको रोक कर जो अक्षम्य अपराध किया है, उसके लिये इन लोगों को जो नाममात्र का आपने शापरूपी दण्ड दिया है वह पर्याप्त नहीं; उसके लिये तो आप मुझे समुचित दण्ड दें और दया करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों, क्योंकि सेवकों के अपराध का उत्तरदायित्व स्वामी पर भी होता है, अतएव उनके किये अपराधों का मैं सर्वथा अपराधी हूँ। आप लोग अपने क्रोध के लिये पछतावा न करें, क्योंकि आपका वह समुचित क्रोध था। यदि आप ही लोग अपने दण्ड के द्वारा हमारा शासन न करेंगे तो कौन करेगा?”
भक्तवत्सल भगवान् की सत्य एवं धर्मयुक्त करुणापूर्ण वाणी सुन कर महर्षिगण गद्गद हृदय हो गये। दयामय दीनबन्धु की ब्रह्मण्यता देख कर महर्षियों का हृदय द्रवीभूत हो गया और उन्होंने कहा कि “हे वैकुण्ठनाथ! आप क्या कह रहे हैं, आपके वचनों ने तो हम लोगों को स्तम्भित कर दिया है, कुछ करते-धरते ही नहीं बन आता किन्तु फिर भी हम आपसे यही प्रार्थना करते हैं कि, हमने जो चञ्चलतावश क्रोध में आकर आपके द्वारपालों को शाप दे दिया है, इसके लिये हम लज्जित हो रहे हैं। एक क्षुद्र भूल के लिये हम लोगों को इतना क्रोध नहीं करना चाहिये था। अब आपके दर्शनों से हम लोगों का क्रोध शान्त हो गया है। इन द्वारपालों के हित के लिये आप जैसा उचित समझें वैसा करें। हम लोगों को कोई आपत्ति नहीं, प्रत्युत इनके शापोद्धार से हमें प्रसन्नता होगी तथा अपने किये हुए अनुचित क्रोध का पछतावा मिटेगा।”
महर्षियों के इस दयामय भाषण के समाप्त होते ही जय और विजय दोनों साथ ही करुणस्वर से बोल उठे कि, “हे स्वामिन्! हे महर्षिगण! हम अधम अपराधियों के उद्धार के लिये हमें शीघ्र कोई उपाय बतलाइये। जिन भगवच्चरणों के दर्शन के बिना ‘क्षणमपि यामति यामो दिवसात दिवसाइच कल्पन्ति’ की कहावत चरितार्थ होने लगती है उन श्रीचरणों का वियोग हम लोगों के लिये असहनीय है। इन श्रीचरणों की सेवा को छोड़ कर न जाने हम लोग किस घोर नरक में गिरेंगे और न जाने कब तक के लिये घोर नरकवासी होना पड़ेगा।” द्वारपालों के करुण क्रन्दन को सुन महर्षियों ने अपनी स्वाभाविकी दयालुता के वशीभूत होकर कहा “हे वैकुण्ठनाथ! इन दीन द्वारपालों के उद्धार का शीघ्र उपाय कीजिये। हम लोगों के प्रार्थनानुसार तो आप इनको शाप मुक्त कर दें तो अधिक उत्तम होगा।”
जय, विजय तथा सनकादि महर्षियों के वचनों को सुनकर भगवान् लक्ष्मीनारायण ने कहा कि ‘हे महर्षिगण! आप लोग यह क्या कहते हैं? क्या ब्रह्मशाप भी कभी अन्यथा हो सकता है? त्रिकाल में भी और त्रिदेव की इच्छा से भी इस अमिट ब्रह्मशाप को मिटाने वाला तीनों लोक और चौदहों भुवन में कोई नहीं है। आप लोगों ने इन लोगों को जो शाप दिया है, वह इनके अपराधानुरूप ही है। गुरु नहीं, प्रत्युत लघु है और इनको उसका फल भोगना होगा। ये मनुष्यलोक में जाकर शीघ्र ही आसुरी योनि में जन्म ग्रहण करेंगे, जिसके योग्य इन लोगों ने अपराध किया है।” इतना कहकर भगवान् लक्ष्मीनारायण ने अपने द्वारपालों को सम्बोधित करके कहा “हे प्रिय द्वारपालो! तुम लोगों ने बड़ी भूल की है। अब भविष्य में तुम लोगों के समान हमारे कोई पार्षद हमारे आराध्यदेव द्विजराजों का अपमान कभी न करें, इसी अभिप्राय से इन सदा क्रोध विजयी महर्षियों ने तुम लोगों को शाप दिया है। इसके लिये तुम लोगों को दुःख मानने का कोई कारण नहीं है। अवश्य ही हमारी सेवा का वियोग तुम लोगों के लिये असहनीय प्रतीत हो रहा है। इसके लिये हम तुम लोगों का उद्धार करेंगे। तुम लोग असुरवंश में उत्पन्न होकर भी हमारी ओर जितना ही अधिक चित्त लगाओगे, उतना ही शीघ्र तुम लोगों का उद्धार होगा। किन्तु एक बात ध्यान में रखने की है कि, यदि मित्रभाव से तुम लोग हमारा ध्यान करोगे, तो तुम लोगों का उद्धार सात जन्म में होगा और यदि प्रबल शत्रु के रूप में हमारा ध्यान करोगे तो तीन ही जन्म में तुम लोग शाप से मुक्त होकर अपने इस पद को पुनः प्राप्त करोगे, क्योंकि जितनी तन्मयता शत्रुभाव में होती है उतनी तन्मयता भक्तिभाव में नहीं हो सकती। यह एक निश्चित सिद्धान्त है। अतएव तुम लोगों की जैसी इच्छा हो वैसा करो।” दीनबन्धु दीनानाथ के वचनों को सुन कर महर्षियों ने द्वारपालों से कहा कि “ठीक ही है, मर्यादा-पालन के लिये, तुम लोगों को कुछ काल के लिये भगवच्चरणों के वियोगजनित असह्य दुःख को भी सहन करना ही उचित है।”
भगवद्वचनों का समर्थन महर्षियों के मुख से सुनकर हाथ जोड़ और कम्पित स्वर से विजय ने कहा “हे नाथ! हे कृपा-सिन्धु महर्षिगण! हम लोगों ने जिन चरणों की सदा अनन्य भाव से सेवा की है, उन चरणों के वैरी बनकर अपमान करें, और इसलिये अपमान करें कि, जिसमें हमारा उद्धार सात जन्म में न होकर तीन ही जन्म में हो जाय सर्वथा अनुचित है तथा हमारे लिये हितकर नहीं है। जिन चरणों की सेवा के लिये ही हम अपना शीघ्र उद्धार चाहते हैं, उन्हीं चरणों का अपमान करें, यह कितना विषम कार्य है।” विजय के भक्तिभावपूर्ण वचनों के समाप्त होते ही जय ने कहा “भाई विजय! तुमने स्वामी के वचनामृत की ओर ध्यान नहीं दिया, स्वामी ने दयामय भाव से तुमको इंगित किया है कि, तन्मयता शत्रुता में अधिक होती है; फिर तुम भगवच्चरणों की अधिक तन्मयता चाहते हो अथवा कम? प्राणप्रिय विजय! पापमय मानव-जगत् की यातनाएँ असंख्य नरकों की भीषण यन्त्रणाओं से भी अधिक भीषण होती हैं अतएव वहाँ से जितने ही कम समय में छुटकारा मिले, उतना ही उत्तम होगा। शत्रुता और मित्रता के भ्रम में न पड़ो। विचार की दृष्टि से शान्त-चित्त होकर सोचो। प्यारे विजय! देखो न, जो ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ के रूप में सर्वान्तर्यामी विराट् पुरुष है, जो सर्वव्यापी भी है और जिसके एक-एक रोम में न जाने कितने ब्रह्माण्ड विराजमान हैं उसकी कैसी मित्रता और कैसी शत्रुता? हम क्षुद्र जीव उसके लीलामय जगत् में किस गिनती में हैं ? हममें न तो मित्र-धर्म अथवा भक्ति-भाव के निबाहने की योग्यता है न शत्रुता करने की शक्ति ही है। हम तो जिन चरणों की सेवा अब तक करते हैं उनके अब भी सेवक हैं और जितना ही शीघ्र हम लोग फिर अपने सेवा कार्य पर आ सकें, उतना ही अच्छा होगा। अतएव हम लोग अब चलें और अधिक तन्मयतामय शत्रुभाव से भगवान् लक्ष्मीनारायण की उपासना करके शीघ्र शापमुक्त हो, अपने इस पद पर वापस आवें।” जय की बात को विजय ने मान लिया। जिस समय दोनों वैकुण्ठपुरी से गिरने लगे, उस समय बड़ा ही हाहाकार हुआ और उस हाहाकार की ध्वनि से समस्त आकाशमण्डल प्रतिध्वनित हो उठा। इधर भगवत्पार्षदों का पतन हुआ और उधर भगवान् लक्ष्मीनारायण ने यथोचित आतिथ्य सत्कार करने के पश्चात् महर्षियों को अपनी वैकुण्ठपुरी की अनुपम सुषमा और शोभा को दिखलाकर प्रसन्न किया। महर्षिगण प्रसन्नचित्त होकर विदा हुए और शान्त वैकुण्ठपुरी में पुनः सुशान्ति विराजने लगी।
ब्राह्मणों के शापप्रभाव से जय और विजय नामक जिन भगवत्पार्षदों का बैकुण्ठपुरी से पतन हुआ वे ही मर्त्यलोक में आकर आदिदैत्य के रूप में प्रकट हुए। महर्षि कश्यप के वीर्य और दक्षदुहिता ‘दिति’ के गर्भ से उनका जन्म हुआ तथा उनके नाम पड़े हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु। हमारे चरित्रनायक दैत्यर्षि प्रह्लाद, इन्हीं भगवत्पार्षद के अवतार हिरण्यकश्यपु के वीर्य और जम्भदुहिता दानवी ‘कयाधू’ के गर्भ से प्रादुर्भूत हुए थे।
शिवपुराण की कथा है कि, जिन महर्षि सनकादि ने जय और विजय को शाप दिया था, उन्हीं में से एक महर्षि सनक ने दूसरे जन्म में प्रह्लाद के रूप में जन्म लिया था और दूसरे जन्म में जब हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु ने रावण और कुम्भकर्ण के रूप में अवतार लिया था, तब हमारे चरित्रनायक दैत्यषि प्रह्लाद ने अञ्जनीकुमार के रूप में जन्म ग्रहण किया था और तीसरी बार जब वे ही भगवत्पार्षद दंतवक्र और शिशुपाल के रूप में प्रकट हुए थे तब हमारे चरित्रनायक ने अक्रूर के रूप में तीसरा जन्म ग्रहण किया था। किन्तु उपर्युक्त कथा वर्तमान कल्प की नहीं, किसी दूसरे कल्प की प्रतीत होती है। क्योंकि रावण और प्रह्लाद के संवाद से पता चलता है कि, रावण के समय में भी हमारे चरित्रनायक दैत्यर्षि प्रह्लाद पाताललोक में विराजमान थे। अतएव उनका अञ्जनीकुमार के रूप में दूसरा जन्म ग्रहण करना सम्भव नहीं। फिर महाभारत में भीम और हनुमान् जी का संवाद पाया जाता है। अतएव हनुमान जी का दूसरे जन्म में अक्रूर के रूप में अवतीर्ण होना सम्भव नहीं। क्योंकि भीमसेन और अक्रूर समकालीन थे।
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के तीसरे अध्याय में एक कथा है कि, दैत्यर्षि प्रह्लाद, पूर्वजन्म में शिवशर्मा नामक ब्राह्मण थे और पश्चात् जन्मान्तर में वे क्या हुए इसकी कोई चर्चा नहीं है। अस्तु, बात कुछ भी हो किन्तु हमारे चरित्रनायक का पूर्वजन्म, पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था और स्वयं ब्राह्मण कुल में दैत्य नामक शाखा से उत्पन्न हुए, इसमें सन्देह नहीं। पद्मपुराण के उत्तरखण्डान्तर्गत नृसिंह-चतुर्दशी-माहात्म्य के प्रसङ्ग में प्रह्लादजी के पूर्वजन्म का बड़ा विलक्षण वर्णन है। उसमें लिखा है कि, पूर्वजन्म में दैत्यर्षि प्रह्लाद वसुदेव नामक एक अशिक्षित ब्राह्मण थे। सारांश यह कि, जितने प्रमाण मिलते हैं, उनसे यही सिद्ध होता है कि हमारे चरित्रनायक परम-भागवत दैत्यर्षि प्रह्लाद, पूर्वजन्म में भी ब्राह्मण थे, पर जन्म में वे क्या हुए इसका निर्णय करना कठिन है किन्तु पद्मपुराण की कथा से उनका पुनर्जन्म होना ही सिद्ध नहीं होता, जो सर्वथा सम्भव प्रतीत होता है।