असमंजस की घड़ी
जलते कोयले पर जमी राख की परत को
मिलती रही है तुम्हारे स्पर्श से हवा
अब इस सुलगी आग का क्या करूँ मैं?
छोड़ दूँ गर इसे अपने नतीजे पे
तो प्रश्न अस्तित्त्व का है
बुझा भी दूँ किसी की मदद से
तो सवाल है नीती-अनीति का…
इस असमंजस में फँसाया यूँ
कि भौचक है सब
कि साथ दें जज्बातों को या तुम्हें
कि तुम्हारा इतिहास भी हमें याद है।।