अश्रुनाद मुक्तक संग्रह पञ्चम सर्ग “हृदय”
…. अश्रुनाद मुक्तक संग्रह ….
…. पञ्चम सर्ग ….
…. हृदय ….
युग – युग से साथ घनेरे
सुख – दुख दोनों ही घेरे
इस करुणा कलित हृदय में
बस रहो निरन्तर मेरे
मधुरिम मृदु रूप सजाया
तन सुभग कामिनी काया
आनन्दित हिय दर्पण में
आलोकित पुलकित माया
परिहास किया जीवन का
निर्मम निरीह निर्धन का
मैं विकल अकिञ्चन फिरता
सन्ताप छिपाये मन का
हिय उर्मि उमंगित आती
उठ-उठकर गिर-गिर जाती
अनुपम नव साहस भरकर
अन्तस में विगुल बजाती
कौतूहल हृदय – भुवन में
दुर्गम सर्पिल पथ वन में
आह्लादित कोलाहल हो
सुख- दुख रञ्जित जीवन में
सदियों से साथ हैं मेरे
सुख- दुःख रञ्जन के घेरे
इस निर्दय विश्व सदन में
तुम ! करो हृदय में डेरे
स्वर्णिम प्रभात मुस्काता
रवि रश्मि- रथी सँग आता
मेरे हिय – विश्वाञ्चल के
तम में स्मृति- दीप जलाता
दुर्गम जीवन के पथ पर
गिरि भेद रश्मि निज रथ पर
प्रमुदित नव सुखद सवेरा
अभिलाषित हिय में तत्पर
रवि तेज प्रखर बिखराये
जब ज्येष्ठ तपन बिलखाये
तब सुखद झलक पा प्रिय की
तन – मन शीतल हो जाये
अन्तस अनन्त अभिलाषा
अगणित मन में जिज्ञासा
कर दो तुम शून्य हृदय की
जन्मों से तृप्त पिपासा
उन्मुख मिलते द्वय प्राणी
अस्फुट अधरों की वाणी
फिर युगल हृदय रच देते
जगती में प्रेम – कहानी
नीलाम्बर सुखद प्रसारे
धानी अञ्चल अभिसारे
आमन्त्रण हृदयाबन्धन
अभिलाषित नयन निहारे
सुख-दुख रँग-रञ्जित घेरे
हिय में सन्ताप घनेरे
जीवन के दुर्गम पथ पर
बन जाओ सहचर मेरे
सुधियों से अन्तस रोता
बन मोती , दृग-जल धोता
कविता भावों में प्रमुदित
हिय- माला कण्ठ सँजोता
सुमनों सी सुरभि सुफलता
स्मृतियों से हृदय विकलता
उद्भव हो मानस – रचना
मृदु भावों की चञ्चलता
प्रज्ज्वलित प्रेम लौ – धारा
जगती – उर सत अभिसारा
हिय – दर्पण में प्रतिबिम्बित
अगणित प्रिय ! रूप तुम्हारा
शुचि-प्रीति सरित सम बहती
हृदयों में अविरल रहती
रँग-रञ्जित चिर-चिन्हों पर
चेतनता सुख- दुख सहती
स्वर्णिम आभासित होना
स्वर्णिम आबन्ध सलोना
जीवन के मधुर पलों का
हिय-मोती मञ्जु पिरोना
अनुपम सुर – वाद्य सजाये
मधुरिम सड़्गीत सुनाये
मञ्जुलमय मूर्ति हृदय में
श्रद्धावत नयन झुकाये
हिय- प्रेम- ज्योतिरत ज्वाला
लेकर सुधि – मञ्जुल माला
प्रिय ! दर्श अमिय पा लेता
अर्पण जीवन मृदु वाला
जग सतत प्रेम अनुबन्धन
प्रिय का कोमल अवगुण्ठन
स्वच्छन्द हृदय – अम्बर में
जीवन का सत अवलम्बन
सुधियों के दीप जलाये
हृदयाञ्चल मञ्जु सजाये
दुर्भाग्य अकिञ्चित जीवन
हिय विरह – अनल गहराये
पोथी पढ़ भुवन सजाये
फिर विपुल विशारद पाये
स्वर्णिम आलोक हृदय हो
जब अन्तर्पट खुल जाये
रुनझुन वाणी मृदु बोलें
मधुरस जीवन में घोलें
भर नव उमंग यौवनता
स्मृतियाँ अब नयन भिगो लें
जीवन – पथ सुगम बनाये
उन्नत शिखरों तक जाये
अन्तस घट के पट खोले
जब ज्ञान – छटा हिय छाये
हिम-गिरि नत अनुपालन के
अन्तर भू – ज्वाल मिलन के
अवशेष चिन्ह हैं चित्रित
उस ज्वालामयी जलन के
हिय असह्य बेदना छाये
आघात – परिधि फैलाये
मेरी करुणित प्रतिध्वनि भी
फिर लौट क्षितिज से आये
हिय परम भक्तिमय होता
तब स्वत्व आत्मबल होता
भूचाल प्रलय विपदा में
भय किञ्चित व्याप्त न होता
दिन – प्रात भोग – रत जीता
सत्कर्म – हृदय – घट रीता
सन्ध्या में जीवन क्रम के
अब जोड़ – तोड़ कर बीता
तृण – तृण चुन नीड़ बनाया
स्वप्निल संसार सजाया
जीवन सन्तति के क्रम में
वात्सल्य सुखद हिय छाया
मृदु भाष्य मधुर रस घोलें
अन्तर – सुप्रेम – पट खोलें
जीवन पथ सुगम सरस हो
हिय सोच समझ कर बोलें
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