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10 Jun 2017 · 3 min read

अशोक दर्द की पांच कविताएँ

कभी मैंने जो ….

कभी मैंने जो उनकी याद में दीपक जलाये हैं |
सुनहरी सांझ में पंछी यूं घर को लौट आये हैं ||

नहीं ये ओस की बूँदें हैं आंसू गुल के गालों पे |
किसी ने खत मेरे शायद उन्हें पढ़कर सुनाये हैं ||

दुआ में झोलियाँ भर भर जो औरों के लिए मांगे |
ख़ुशी ने उसके आंगन में आकर गीत गाये हैं ||

बदले हैं बहारों के हसीं मौसम खिजाओं में |
किसी के खाब पलकों ने मेरी जब जब सजाये हैं ||

कभी करते नहीं परवाह बशर जो रिसते छालों की |
वही अम्बर के तारों को जमीं पे तोड़ लाये हैं ||

पुराने दोस्त देखे हैं खड़े दुश्मन के पाले में |
शोहरत की बुलंदी के करिश्मे आजमाए हैं ||

अशोक दर्द

नये दौर की कहानी [ कविता ]

जहरीली हवा घुटती जिंदगानी दोस्तों |
यही है नये दौर की कहानी दोस्तों ||

पर्वतों पे देखो कितने बाँध बन गये |
जवां नदी की गुम हुई रवानी दोस्तों ||

विज्ञानं की तरक्कियों ने चिड़ियाँ मार दीं |
अब भोर चहकती नहीं सुहानी दोस्तों ||

कुदरत के कहर बढ़ गये हैं आज उतने ही |
जितनी बढ़ी लोगों की मनमानी दोस्तों ||

पेड़ थे परिंदे थे झरते हुए झरने |
किताबों में रह जाएगी कहानी दोस्तों ||

हर रिश्ता खरीदा यहाँ सिक्कों की खनक ने |
कहीं मिलते नहीं रिश्ते अब रूहानी दोस्तों ||

अँधेरा ही अँधेरा है झोंपड में देखिये |
रौशन हैं महल मस्त राजा – रानी दोस्तों ||

सरे राह कांटे की तरह तुम कुचले जाओगे |
कहने की सच अगर तुमने ठानी दोस्तों ||

भर रहे सिकंदर तिजोरियां अपनी |
दर्द लाख कहे दुनिया फानी दोस्तों ||
अशोक दर्द

बाद मुद्दत के

शज़र पे फूल आये हैं बाद मुद्दत के |
शाख के लब मुस्कुराये हैं बाद मुद्दत के ||

जूझते पतझड़ों से इक जमाना निकला |
बहार के मौसम आये हैं बाद मुद्दत के ||

सूना आंगन फिर से चहचहाया है |
गीत चिड़ियों ने गाये हैं बाद मुद्दत के ||

मुरझाये गालों पे रंगत लौट आई है |
किसी ने गले लगाये हैं बाद मुद्दत के |

जिनके इन्तजार में गुजरी उम्र साड़ी |
खत उनके आये हैं बाद मुद्दत के ||

सूख गये थे जो दिल के खेत सारे |
फिर से लहलहाए हैं बाद मुद्दत के ||

मेरी तिश्नगी की सुन ली खुदा ने शायद |
मेघ मिलन के छाये हैं बाद मुद्दत के ||

मेरे ख्याल वक्त की खूबसूरत किताब से |
हसीन लम्हे चुरा लाये हैं बाद मुद्दत के ||

फूलों की खेतियाँ

नीचता की हदें लांघ रहे हैं जो
पशुता को भी लांघकर निकल गये हैं आगे उनकी नीचता को
कभी भी सम्बोधनों में नहीं बाँधा जा सकता
शब्द बौने हो जाते हैं |

गलियों के आवारा कुत्ते भी तो
अपने मोहल्ले के लोगों की गंध पहचानते हैं
वे भी यूं ही उन्हें काटने के लिए नहीं दौड़ पड़ते
यह क्या विडम्बना है मनुष्य , मनुष्यता की गंध नहीं
पहचान पा रहा है |

आज कितने ही दरिन्दे मनुष्यता के आंगन में
कैक्टस की तरह उग आये हैं
जो मनुष्यता के आंगन को लहूलुहान करने पे उतारू हैं |

आज समय की मांग है कि
इन कंटीले कैक्टसों से आंगन बचाया जाये
ताकि यह दुनिया जीने के काबिल बनी रहे
आओ मिलजुल कर कैक्टस उखाड़ें और फूलों की खेतियाँ करें ||

[2]

जरा सी शाम ढलने दो

लिखेंगे गीत वफाओं के , जरा सी शाम ढलने दो |
लिखेंगे गीत दुआओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

मौसम के रंग कैसे थे , हवा का नूर कैसा था |
लिखेंगे गीत हवाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

थीं रिमझिम बारिशें कैसी , लिपटी बादलों के संग |
लिखेंगे गीत घटाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

फूलों की जवानी पे , फ़िदा भंवरे थे किस जानिब |
लिखेंगे गीत फिजाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

तितलियाँ थीं व भंवरे थे , बहकी सी थी पुरवाई |
लिखेंगे गीत छटाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

थोडा सा जाम छलक जाए , दर्दे दिल बहक जाए |
लिखेगे गीत सदाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

थोडा सा सरूर चढ़ने दो , महफिल में नूर चढ़ने दो |
लिखेंगे गीत जफ़ाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||

अशोक दर्द

Language: Hindi
424 Views
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