अवसान
अवसान
उत्थान अवसान
जीवन का विश्राम
आशा जीवन अभी
निराशा जीवन नहीं
अंतर्द्वंद्व की शैया पर
सोचता अपलक नर
जिया जिनके निमित
पास नहीं मेरे जनित
जला दीया,छू आकाश
भरा भ्रम से जग प्रकाश
बड़ी बाती, लो लौ तेज
तेज-तेज, फिर निस्तेज।
मेरा, तेरा सब यहीं पर
साथ कुछ न जा सका
तन यहीं, धन यहीं पर
हाथ कुछ न पा सका।
वो उत्थान, यह पतन
सांस का पहने कफन
उड़ चली मकरंद लो
बढ़ चले फरजंद लो।।
-सूर्यकांत द्विवेदी