अर्धनारीश्वर की अवधारणा
” अर्धनारीश्वर की अवधारणा ”
(छंदमुक्त काव्य)
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इस कशमकश-ए-जिन्दगी में,
इंतजार करते ही रह जाते हैं लोग…
एक दूसरे को समझ पाने में,
इंतजार की घड़ियाँ समाप्त ही नहीं होती ।
एक दूसरे के मनोभावों को,
आत्मसात करने हेतु,
तड़पते ही रह जाते हैं लोग।
आज के भौतिक युग में,
प्रेमीजनों को सिर्फ आकर्षक तन ही दिखता।
सदियों से प्यासी मन तो,
प्यासी की प्यासी ही रह जाती है…
फिर इंतजार कैसे खत्म होगी ?
तन कम्पित होकर करे भी भला क्या ?
यदि मन विचलित ही रह जाए !
अदब से झुकना,दिल की गहराईयों में झाँकना,
एक दूसरे के भावों को पहचानना,
मनुष्य की फितरत में, शामिल ही नहीं होता।
बेरुखीपन,अतृप्त मन और ,
बनावटीपन का प्यार,
कब तक संग-संग चले भला ?
रिश्तों में भी इंतजार की सीमा होती है…
बाजुओं की गिरफ्त जैसे ही ढीली पड़ती,
मन छटपटाने लगता आज़ाद होने को।
फिर कुछ ऐसा लगता है कि _
यही वो समय है,
यही वो जगह है,
जहाँ से रास्ते बदलने हैं।
फिर मन रास्ते बदल कर,
किसी दूसरे नर/नारी का,
इंतजार करने लगता…
पूर्ण समर्पण और,
एक दूसरे में आत्मसात करके,
अर्द्धनारीश्वर के अद्वितीय स्वरूप का,
अनुभव करने की स्थिति,
बन ही नहीं पाती जीवन में।
मनुष्य मन अतृप्त ही रह जाता,
इंतजार कभी खत्म नहीं होता…
अर्द्धनारीश्वर और अर्द्धांगिनी,
गृहस्थाश्रम में मनुष्य के लिये,
एक बेहद कठिन परिकल्पना बन गई है।
ईश्वर का अनुभव,
भले ही हो जाए जीवन में।
पर वो अर्धनारीश्वर की अवधारणा !
भोलेनाथ के लिए ही,
रहने दो….!
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )