अर्थ बिना जीवन बेकार
गुरूजी पुस्तक कांख दबाए,
भूखे पेट अश्रुधार के मारे,
जा पहुंचे धनपति के द्वार ।
मुट्ठी भर दाना दे कर,
साथ कई शर्त लगाकर,
किया धनपति उन्हे स्वीकार ।
मरता क्या न करता,
खाली देख बर्तन भी कहरता,
बनाया मुट्ठी भर दाना को परिजन का आधार ।
पुस्तक उठाने वाले नैतिकता के अनुगामी,
कर्म पथ पर हुआ न उनसे मनमानी,
हुआ न उनसे धनपति प्रतिकार ।
बनी यही उनकी दुर्बलता,
छिन गई सर्व ज्ञान प्रबलता,
उपहास हुआ फिर बारंबार ।
लक्ष्मी हुई सरस्वती पर भारी,
रोटी की बढी फिर अत्याचारी,
सच पूछो अर्थ बिना जीवन बेकार ।
– उमा झा