ग़रीब की दिवाली!
“आँखें फूट गई हैं क्या?” पोछा लगाते झबरी के हाथ रुक गए।
“शक्ल अच्छी नहीं, बातें तो अच्छी किया कर।” मणीराम झल्लाया।
“तू सिखाएगा तमीज़….!”
“तेरे मायके वालों को तो तमीज़ है?” चप्पल वहीँ छोड़ मणीराम कमरे में प्रवेश कर गया।
“मेरे भाग फूट गए इससे ब्याह करके।” बड़बड़ाते हुए झबरी पुनः पोछा लगाने लगी।
ये नई बात न थी। दोनों पति-पत्नी के मध्य नोक-झोंक होती रहती थी। ब्याह का सुख 7 वर्ष में बासी रोटी की तरह रुखा-बेस्वाद हो चला था। ऐसा नहीं था कि मणीराम तज़ुर्बेकार आदमी नहीं था। ऐसा अक्सर होता है कि कर्म का उचित पारितोषिक न मिलने पर, व्यक्ति विशेष के मन में अकर्मण्यता घर कर जाती है। निर्धनता और तिस पर लक्ष्मी जी की अधिकतम रुष्टता ने मणीराम को भी कर्महीनता के पथ पर धकेल दिया था। झबरी भले ही मुंहफट थी, यदि आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती तो उस जैसी कोई आदर्श पत्नी न थी। इन 7 बरसों में तीन बच्चों की माँ बन जाने से भी उसका स्वास्थ्य-सौंदर्य प्रभावित हुआ था। बड़ा गुणीराम, मंझला चेतराम व छोटा धनीराम—छह, चार व डेढ़ वर्ष के ही थे कि चौथा जीव भी पेट में अंगड़ाई लेने लगा था।
“अम्मा, आइसक्रीम वाला…” गुणीराम बोला।
“चल पीछे हट। पोछा लगाने दे। यहाँ राशन के लिए पैसे नहीं और आइसक्रीम चाहिए।” झबरी ने कहा, “बाप महीने भर बाद आज ड्यूटी पर गया है। तनख्वाह आएगी। तब खाना आइसक्रीम।”
“नहीं मुझे अभी चाहिए।”
“खायेगा थप्पड़ सुबह-सवेरे। भाग यहाँ से।”
“माँ… आईतिरिम थाऊंगा!” तभी चेतराम वहां आ पहुंचा। गुणी को आइसक्रीम के लिए रोता देख वह भी तुतले स्वर में माँ से आइसक्रीम मांगने लगा।
“देखो कल दिवाली है। जी-भर मिठाई खाना कल दोनों।” झबरी ने समझाया।
दोनों बच्चे खुश हो गए। उन्हें छह महीने पहले की याद हो आई। जब मामाजी मिठाई लाये थे। बच्चे उसका स्वाद अब तक न भूले थे।
“वैसी मिठाई, जैसी मामाजी लाये थे!” गुणी बोला।
“हाँ बेटा।”
“तो फिर मैं अकेले ही खाऊंगा मिठाई।” गुणीराम चेतराम को ठेंगा दिखाते हुए बोला।
“नहीं मैं थाऊंगा।” चेतराम रोने लगा।
“दोनों खाना।” झबरी ने मुस्कुराकर कहा।
दोनों बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी बाहर खेलने चले गए। उनको गए पांच मिनट भी न बीते थे कि मणीराम ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
“इतनी जल्दी आ गए?” बरामदे में मणीराम को साइकिल खड़ी करता देख झबरी आश्चर्य से बोली।
“खसम की नौकरी खाकर पूछ रही है! स्साली और चला हाथ… दूसरी टांग भी तोड़ दे खसम की। टांग क्या, सांसों की डोर भी तोड़ दे। इस नरक से मुझे भी निज़ात मिले। फिर मेरी तेरहवीं पे दूसरा खसम करके जन्नत के मज़े लूटियो।” और भी क्रोधवश न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बोलता रहा मणीराम, लेकिन नौकरी छूट जाने के सदमे के अतिरिक्त झबरी को कुछ और सुनाई नहीं पड़ रहा था। मस्तिष्क भाव-शून्य हो चुका था झबरी का, बस वह मणीराम का चलता हुआ मुंह देख रही थी। उसे गालियाँ बकता हुआ जब मणीराम कमरे में घुस गया तो सदमे की-सी हालत में वह सर पकड़कर वहीँ बैठी विलाप करने लगी।
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“देखो जी, दिल छोटा मत करो, नौकरी फिर मिल ही जाएगी।” झबरी ने बड़े प्रेम से मणीराम के बालों में हाथ फेरते हुए कहा, “आज दिवाली है और बच्चे कई दिन से इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आज उन्हें खाने को ख़ूब मिठाई मिलेगी, लेकिन घर के हाल तुमसे छिपे नहीं हैं। फूटी कौड़ी तक नहीं बची घर में। कल चावल भी पड़ोस से मिल गए, तो जाकर खिचड़ी बनी थी। आपको तो कंपनी से हिसाब-किताब अभी दो दिन बाद मिलेगा। कुछ जतन करो। कहीं से उधार मांगकर मिठाई ले आओ।” झबरी रो-सी पड़ी, “हम तो अभाव में जी ही रहे हैं पर तीज-त्यौहार पर बच्चों का मन क्यों मारा जाये?”
“बेफ़िक्र रह पगली, मैं गया और आया। मेरे बच्चे दिवाली के दिन भी मिठाई को तरसें! यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा।” इतना कहकर मणीराम बाहर चला दिया। झबरी भी द्वार पर आ खड़ी हुई और गली की तरफ़ तब तक देखती रही, जब तक कि मणीराम दृष्टि से ओझल न हो गया। भीतर बच्चे पूर्ववत सो रहे थे। निसफ़िक़्र, दीन-दुनिया की झंझटों से बेख़बर, आज़ाद।
संध्या हो चली है। रंग-बिरंगी लाइटें जल उठी हैं। दीपावली के कारण हर्षोल्लास छाया है। किन्तु खुशियों की भीड़ से अलग एक उदास चेहरा फ़िक्र में घुल रहा था कि वह अपने बच्चों के लिए मिठाई ख़रीदे। आख़िरकार उसने मन में एक दृढ निश्चय किया और सामने हलवाई की दुकान पे जा पहुंचा।
“लालाजी मिठाई चाहिए थी?”
“कितने किलो?”
“लालाजी मेरे बच्चे बड़ी उम्मीद लगाए मेरी राह तकते होंगे। सुबह का निकल हूँ। शाम ढलने वाली है।” और मणीराम ने अपनी राम-कहानी लाला को कह सुनाई। हलवाई का दिल पिघल गया।
“बड़े बेदर्द हैं तुम्हारी कंपनी वाले। ऐन त्यौहार के मौके पर तुम्हें निकाल दिया। ख़ैर मैं तुम्हें मिठाई दिए देता हूँ।” लाला ने दया दिखाई।
“लालाजी ऐसा कीजिये आधा किलो मिठाई और पचास रुपये दे दीजिये ताकि मैं बच्चों के लिए पटाखे ख़रीद सकूँ।” मणीराम ने हाथ जोड़कर कहा, “मेरे बाल-बच्चे दुआएँ देंगे।”
लाला ने ऐसा ही किया और मणीराम दुआएं देता हुआ शीघ्र-अति-शीघ्र घर की तरफ़ बढ़ने लगा। उसके हाथ जैसे कोई गड़ा हुआ खज़ाना लग गया था। घर लौटने की ऐसी ख़ुशी, शायद उसने बरसों बाद महसूस की थी।
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“मम्मी, पापा कब आएंगे?” गुणीराम ने पूछा। झबरी बच्चों सहित द्वार पर बैठी पति के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। गोदी में सबसे छोटा धनीराम बैठा था। चेतराम माँ की पीठ पर चढ़कर झूला झूलने की कोशिश कर रहा था, जबकि सबसे बड़ा गुणीराम झबरी की तरह काफ़ी बेताबी से पिता के आने की राह तक रहा था। ‘कहीं पुरानी आदत के चलते दारू पीने न निकल गए हों?’ इंतज़ार करते झबरी के मन में कई विचार उठने लगे। वह उठकर भीतर चलने को ही थी कि गुणीराम के चिल्लाने के स्वर ने उसके क़दमों को रोक दिया।
“माँ, पापा आ गये। मिठाई भी लाये हैं।” और उत्साह में गुणीराम पिता की तरफ़ दौड़ पड़ा। पीछे-पीछे छोटा चेतराम भी इस तरह से भागा कहीं गुणी सारी मिठाई न खा जाये? साथ-ही-साथ वह भी ख़ुशी का इज़हार करते जा रहा था, “पापा मिथाई लाये!”
पति को अपनी उम्मीदों पे खरा उतरते देख झबरी ने बड़ी राहत की साँस ली। मणीराम घुटनों के बल बैठ गया और उसने दोनों बच्चों को गले से लगा लिया। गुणीराम मिठाई और पटाखों का थैला लेकर घर की और लपका तो झबरी ने उसके हाथ से थैला छीन लिया, “मिठाई और पटाखे, पूजा के बाद। चलिए, पहले आप नहा लीजिये। मैंने ग़ुसलख़ाने में बाल्टी भरकर रखी है।”
“जो हुकुम सरकार!” मणीराम ने झबरी को सलाम किया। सब घर के भीतर प्रविष्ट हो गए।
पूजा-पाठ चल रहा है। मणीराम के पीछे-पीछे झबरी भी आरती की पंक्तियाँ दोहरा रही थी, ‘ओउम जय जगदीश हरे।’ बच्चों का ध्यान पूजा-पाठ के बजाए, मिठाई के डिब्बे की तरफ़ अधिक था। वो मिठाई जिसे खाये एक ज़माना गुज़र गया था। पूजा-पाठ ख़त्म होने के बाद झबरी देवी ने अभी मिठाई का डिब्बा खोला ही था कि दरवाज़े पर मंगतू पहुँच गया।
“अकेले-अकेले ही मिठाई खाई जा रही है मणीराम भाई।” मंगतू ने घर की ड्योढ़ी से ही मिठाई का डिब्बा देखते हुए कहा।
“आओ-आओ मंगतू भाई, बड़े मौक़े से आये। लो तुम भी खाओ।” मणीराम ने मंगतू को भीतर आने का निमन्त्रण देते हुए कहा।
“अरे एक हम ही नहीं, पूरी चण्डाल-चौकड़ी आई है तुम्हें दारू और ताश का न्यौता देने।” कहते हुए मंगतू भीतर प्रवेश कर गया। उसके पीछे-पीछे आठ-दस जने और आ पहुंचे। जिसमे सुखिया, घीसू, दगड़ू और न जाने कौन-कौन थे?
दीपावली की शुभकामनाओं के उपरान्त चण्डाल-चौकड़ी वहीँ जम गई। बेचारी झबरी मारे शर्म के मिठाई का डिब्बा लिए रसोई में जाने को थी कि दगड़ू ने डिब्बा पकड़ लिया।
“अरे भाभीजी, डिब्बा कहाँ लिए जा रहे हो?”
“मैं प्लेट में रखकर लाती हूँ।”
“अरे क्यों तकलीफ़ कर रही हो, भाभी जी। इस डिब्बे से ही मिठाई उठा लेंगे।” कहते हुए दगड़ू ने डिब्बा अपने क़ब्ज़े में कर लिया।
बच्चे भी शरमाये हुए से माँ के पीछे-पीछे पल्लू थामे रसोई में चले गए। मणीराम चाहकर भी कुछ न बोल पाया। उसे बड़ा क्रोध आ रहा था। देखते-ही-देखते डिब्बा खुल गया और मिठाई को लेकर कुछ मारा-मारी और दो मिनट में डिब्बा साफ़। दगडू ने बर्फ़ी का एक टुकड़ा मणीराम को भी दिया था मगर उसे वह हलक से नीचे न उतार सका। बच्चे द्वार की ओंट से इन सब शैतानों को अपने हिस्से की मिठाई पर डाका डालते हुए टुकुर-टुकुर देख रहे थे। मणीराम ने ये सोचकर की चलो बच्चे कम-से-कम एक टुकड़ा बर्फ़ी का तो खा ही सकते हैं। मणीराम ने बर्फ़ी का टुकड़ा दिखाकर बच्चों को कमरे में आने का इशारा किया।
“अरे हम क्या बच्चों से कम हैं मणीराम भाई।” कहकर मंगतू ने मणीराम के हाथों से बर्फ़ी का वो आख़िरी टुकड़ा भी छीन लिया, “क्या करूँ, दिल ही नहीं भरा! बड़ी अच्छी मिठाई है!”
“आज घीसू के यहाँ रातभर विलायती दारू पीने और ताश खेलने का अच्छा-खासा इंतज़ाम हुआ है। फिर तुम्हारे बिना तो हमारी कोई महफ़िल जमती ही नही मणीराम भाई। इसलिए ख़ास तुम्हें लेने आये हैं। हम सब वहीँ जा रहे हैं। क्या पता लक्ष्मी जी आज तुम पर मेहरबान हो जाएँ?” दगड़ू ने बड़े ही दोस्ताना अंदाज़ में कहा।
मणीराम की इच्छा तो नहीं थी, मगर घर में बच्चे मिठाई के लिए परेशान करेंगे ये सोचकर मणीराम भी उनके साथ हो लिया। चण्डाल-चौकड़ी के उठ जाने से कमरा पहले की भांति सुनसान हो गया। पूजा के स्थान पर ‘दिया’ पूर्ववत जल रहा था। फोटो में श्रीराम, सीता-लक्ष्मण सहित मुस्कुरा रहे थे। सामने फ़र्श पर पड़ा हुआ मिठाई का डिब्बा लूटने की कहानी अपने-आप बयान कर रहा था। जिस पर दौड़कर गुणीराम ने क़ब्ज़ा कर लिया था। नन्हा चेतराम उससे खाली डिब्बा छीनने का असफल प्रयास करने लगा। सफलता हाथ न लगने पर वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
इस बीच झबरी भी कक्ष में आ चुकी थी। मिठाई के लिए बच्चों को तरसता देख उसका भी मन उखड गया था। वह एक कोने पर खड़ी अपने भाग्य को कोसने लगी।
“माँ-माँ,” मंझले चेतराम ने माँ का पल्लू खींचते हुए अपने तुतले स्वर में कहा, “वो देखो फइया अतेले-अतेले मिथाई थाला है। मुदे भी मिथाई दो न।” रोते-रोते चेतराम ने बार-बार यही शब्द दोहराये।
झबरी के लिए ये सब सुन पाना लगभग असहनीय-सा हो गया। बच्चे के कोमल मासूम शब्द उसके हृदय को भेद रहे थे। मस्तिष्क भावशून्य हो चुका था उसका, “हरामजादे,” कहकर झबरी ने एक थप्पड़ उस अबोध बालक को जमाया। वह छिटक कर दो हाथ दूर जा गिरा, “अगर मिठाई ही खानी थी तो किसी सेठ-साहूकार के घर जन्म लिया होता! यहाँ क्या मेरी हड्डियाँ खायेगा? चुपचाप खिचड़ी खाके सो जा, नहीं है कोई मिठाई-विठाई।”
वह मासूम रो देना चाहता था कि अपनी माता के इन आक्रोश भरे तीखे शब्दों को सुनकर उसने आंसुओं को बह जाने से रोक लिया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर उसका क़सूर क्या है? दिवाली पर सभी तो मिठाई खाते हैं।
बस, चुपचाप सिसकते हुए, वह निहार रहा था, अपने बड़े भाई गुणीराम को। जो मिठाई के ख़ाली डिब्बे को खुरचने में व्यस्त था।
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