” अम्माँ कल से मैं स्कूल नही जाऊँगीं “
संस्मरण
मैं क्लास फोर में थी रोज़ का नियम था स्कूल से घर के गेट में घुसती और स्कूल बैग बाउंड्री के बाहर ये बोलते हुये फेंक देती ” अम्माँ कल से मैं स्कूल नही जाऊँगीं ” अम्माँ बैग उठा कर लाती दूसरे दिन मैं स्कूल जाती । मेरी समझ में ये नही आता की मेरी बातों का अम्माँ पर कोई असर क्यों नही होता है ? मैं तो अम्माँ की हर बात मानती हूँ लेकिन अम्माँ मेरी एक बात नही मान सकती , मेरा पढ़ाई में मन ना लगता देख अम्माँ ने एक ट्यूटर रखा हम उन्हें मास्टर जी बुलाते थे बहुत अच्छा पढ़ाते थे ऐसा सब कहते थे मुझे उनके अच्छे पढ़ाने से कोई लेना देना न था बल्कि गुस्सा आता था की इनको पढ़ाना क्यों आता है ।
मेरा दिमाग पूरे वक्त यही सोचने में लगा रहता की कैसे क्या करूँ की मास्टर साहब से पढ़ना ना पड़े , कभी उनके आने के टाइम पर सोने का नाटक करती सब उठाने की कोशिश करते लेकिन मैं उस वक्त कुंभकरण को भी मात दे देती थी ।मास्टर साहब होमवर्क देते मुझसे डेढ़ साल बड़ी बहन जो पढ़ने में बहुत अच्छी थी सारा होमवर्क कर के मास्टर साहब के आने का इंतजार करती जैसे ही वो आते कॉपी खोल होमवर्क दिखाने में लग जाती सब सही देख मास्टर साहब खुश… अब आता मेरा नम्बर ममता तुम्हारा होमवर्क ? मैं ऐसी ऐक्टिंग करती जैसे मुझे सुनाई देना बंद हो गया है ये देख मास्टर साहब कहते ” फिर नही किया होमवर्क ? चलो मुर्गा बन जाओ ” ये सुनते ही मैं इतनी खुश होती की मेरे पास उस खुशी को बताने के लिए आज भी शब्द नही हैं ” मैं झट मुर्गा बन जाती और मुर्गा बन कर अपनी बहन के लिए चिंता करती की बेचारी होमवर्क भी करती है मास्टर साहब से पढ़ती भी है कितनी बड़ी बुद्धू है अगर मेरी तरह होमवर्क नही करती तो पढ़ाई से बच सकती थी ।
उस वक्त मुझे उससे बड़ा बेवकूफ कोई दूसरा नही लगता था , समय आगे बढ़ा क्लास फिफ्थ की पढ़ाई मैने बाबू के साथ इलाहाबाद में रहकर की वहाँ पढ़ाई में मन भी लगता अच्छे नम्बर भी आते । एक साल बाद पूरा परिवार इलाहाबाद आ गया लेकिन वो भी एक साल के लिए बाबू ने अपनी नौकरी से रिज़ाइन किया मैं और मेरी बहन क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज के हॉस्टल में , यहाँ फिर वही पढ़ने में मन नही लगने वाली बिमारी ये देख डेढ़ साल बाद मैं वापस अम्माँ के पास वापस आ गई , यही वो वक्त था जब खेलने को लेकर अम्माँ ने डॉट लगाई थी की पढ़ाई नही करनी है ? ” समय किसी के लिए नही रूकता ” और मेरी पहली कविता का जन्म हुआ ” वक्त से “। परिवार की स्थिति देखिये मेरे बाबू कलकत्ता , मैं अम्माँ के साथ बनारस , सबसे बड़ी बहन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हॉस्टल में ( मेरे घर से काशी हिंदू विश्वविद्यालय बहुत दूर था ) , बीच वाली इलाहाबाद हॉस्टल में और मुझसे छोटा भाई देहरादून के हॉस्टल में ये संघर्ष था पढ़ाई के लिए परिवार का और मुझे वही समझ नही आती थी ।
इस बार अम्माँ के साथ थोड़ा बहुत पढ़ने लगी किसी तरह आठवीं और दसवीं के बोर्ड दिये ( दोनों में फर्स्ट डिवीजन विद डिशटिंगशन ) क्लास इलैवेंथ में बनारस के ” बसंत महिला महाविद्यालय , राजघाट ” ( जे० कृष्णमूर्ती का फर्स्ट फाउंडेशन ) में एडमिशन लिया और यहीं से थोड़ा – थोड़ा पढ़ाई में मन लगने लगा यू पी बोर्ड से सी बी एस सी बोर्ड का बदलाव था सब तरफ लड़कियाँँ ही लड़कियाँ क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज की तरह ( बाकी सारी पढाई कोऐड में की थी ) यहाँ कृष्णमूर्ती जी के आदर्शों के मुताबिक यूनीफार्म नही थी रोज़ नये स्टाईल के कपड़े पहनती खुद ही सिलती ( आगे मेरा मन फैशन डिजाईनिंग करने का था ) यहाँ मेरे ड्रेसिंग सेंस पर पूरा कॉलेज फिदा था और मेरा ” फैन क्लब ” भी यहीं बना मैं हँसती कम थी तो मेरी हँसी देखने के लिए मेरे ” फैन क्लब ” की लड़कियाँ कैंटीन के बाहर बैठ कर मेरा इंतज़ार करतीं कि कैंटीन से निकलते वक्त मैं हँसती हूँ ।
राजघाट से बहुत अच्छा समय बिता कर पढ़ाई के साथ थोड़ा कंफर्टेबल हो कर आगे की पढ़ाई के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के दृश्य कला संकाय में ऑल इंडिया एन्ट्रेंस एक्जाम पास कर अपने मन की पढ़ाई ( टैक्स्टाइल डिजाईनिंग ) करने आ गई । लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था यहाँ सारे विषय पेंटिंग , स्कल्पचर , ऐपलाईड आर्ट , पॉटरी , टैक्सटाईल पढ़ते हुये ये पता चला की मेरा हाथ तो पॉटरी में सबसे अच्छा है बस होनी को कुछ और मंजूर था उसकी मंजूरी में मेरी भी हाँ शामिल हो गई…. एक सबसे बड़ी बात यहाँ मुझे मिले डा० अंजन चक्रवर्ती सर जो हमें ” हिस्ट्री ऑफ आर्ट ” पढ़ाते थे उनके पढ़ाने में क्या जादू था मैं क्लास की बेस्ट स्टूडेंट में आ गई मैने बैचलर और मास्टर्स फर्स्ट डिवीजन में पास किया ” पॉटरी एंड सेरामीक ” विषय से मास्टर्स करने वाली भारत की पहली महिला होने का गौरव प्राप्त हुआ लेकिन अभी भी कुछ बचा था नही पढ़ने वाली अम्माँ की बेटी ने अपनी कविता का पहला संकलन ” गढ़ते शब्द ” अपनी अम्माँ को समर्पित किया । मेरे अंदर जो कुछ भी हुनर है सब मेरी अम्माँ से मुझमें आया है मेरी किताब जब उन्होंने देखी और पढ़ी ( अम्माँ खुद बहुत अच्छी कविता लिखती थीं ) तो मुझे फोन किया और बोलीं ” अरे ! तुम तो कंबल ओढ़ कर घी पीती हो ” पता ही नही चला और मेरे हाथों में तुम्हारी किताब आ गई ” मेरे लिए सबसे इससे बड़ी तारीफ कुछ और नही हो सकती …..अंत में एक बात कहना चाहती हूँ अगर बिना पढ़ाई करने वालों को पढ़ाई करने वालों के बराबर एक समान नजर से देखते तो मैं कभी पढ़ाई ना करती और रोज वैसे ही स्कूल बैग बाउंड्री के बाहर फेकती और कहती ” अम्माँ कल से मैं स्कूल नही जाऊँगीं ” ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 25/08/2020 )