अब वो मुलाकात कहाँ
कभी जी भर की बातें थी
मुलाकात अब भारी,
तेरी उल्फ़त से थी भरपूर
विगत वो रात सब सारी
याद है बात युवपन की
लकीरे हो रही गाढ़ी ,
जिस्म के पोर थे फूटे
अल्हड़ता खूब थी बरसी।
नाजुक मोड़ जीवन का
मिलन पर मेरी थी उलझी ,
बेबस लफ्ज थे मेरे
निगाहें तेरी थी नीची।
बहुत कुछ कहने की चाहत
लहर जज्बातों के उठते,
नदी उल्फत की थी बहती
रहे ग़ुरबत के थपेड़े ।
हुई कब दूर तुम मुझसे
पता कुछ चल नहीं पाया,
हुई जब भंग थी तन्द्रा
राह पर खुद को तब पाया।
वो ख्वाबों की रुसवाई
नीड़ का रूख किया हमने,
मेरी नादानी ही समझे
समय को भापा है किसने।
जमीं गज भरी नहीं जिसके
उसे गुलशन दिया सारा,
रहा दिनारो से महरूफ
खजाना दे दिया पूरा।
अभी जिन सिक्कों को मैंने
सही से गिन नहीं पाया,
बात करना रहा था दूर
जी भर देख नहि पाया।
सोचता था की अब दौरे
मुलाकात चलेगा,
पता न मुझको ये था की
सिरमुड़ाते ओले पड़ेगा।
इतना दूर तुमने हे खुदा
उसको है कर डाला ,
अबोध प्यार का निर्मेष
तूने अंत कर डाला।
निर्मेष