अब तुम कहाँ आओगे
दिल के दरवाज़े पर
देती रहती हूँ दस्तक
दरवाज़े तक पहुंच
लौट आती हूँ और फिर
खो जाती हूँ मैं
पुरानी अविस्मरणीय
यादों में, और सोच यही लिए
कि दफन कर दूँ उन वादों इरादों को
शायद तुम तो न आओगे..?
अब तुम कहाँ आओगे..?
दिल के अन्दर दिखता हैं फिर से
वही यादों का मकड़जाल सा
जो शायद सुलझने ही नही देता
और फ़िर सोचती हूँ शायद यही
नियति का खेल हैं जो वो मुझ संग
खेल रही हैं, जाने अनजाने ही
मैं शिकार हुई हूँ दिल से अब कोई
रास्ता भी नजर नही आता और सोचती हूँ
शायद तुम तो न आओगे..?
अब तुम कहाँ आओगे..?
दिल को बहलाने की नाकामयाब कोशिश
जारी ही रहती हैं पर निराशा ही हाथ आती है
और फिर से बीती यादों के अंधेरों में
विचरण होता हैं सुबह होने तक
दूर तक का सफर तय कर सुबह थकान होना
फिर वही यात्रा जो कभी खत्म नही होने वाली
दिल कभी कहता है आगे बढ़ ओर चल कहता है
शायद तुम तो न आओगे..?
अब तुम कहाँ आओगे..?
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद