अब तुम्हें क्या कविता सुनाउ मैं
अब तुम्हें क्या कविता सुनाउ मैं
किसी छंद सी तुम्हारी हंसी
कई अलंकार का समावेश लगी
उपमा तुम्हें क्या दुं
कही नयी विधा ही न बन जाए काव्य की
इसे जग अतिप्रसंसा भले ही कहे
पर कही कालिदास न हो जाउ मैं
सिंगार रस छलकाती तुम्हारी ये
प्रेम से सराबोर निगाहे
निशा का ये नितांत सूनापन
किसी गागर सा भरा यौवन
उस पर प्रेम पाने को आतुर होता मन
ऐसे समय पर कविता की
हर पंक्ति भुल जाउ मैं
अब तुम्हें क्या कविता सुनाउ मैं