अब किसपे श्रृंगार करूँ
गीत
जाने वाला चला गया है अब किस पर श्रृंगार करूँ
ढाई आखर सूना-सूना अब किससे मैं प्यार करूँ
घुट-घुट कैसे घड़ियाँ गिनू वक्त नहीं काटे कटता
मन-मिलिंद कण-कण में ढूँढे किस पर जान निसार करूँ।
धुवाँ-धुवाँ सा लगता जीवन उनकी यादें साल रहीं
मणि बिन व्याल हुआ ज्यों बेसुध ये आँखे बेहाल रहीं
विकल कोक सा शोक सताए किसे सुनाऊँ मैं दुखड़ा
सिर्फ आँसुओं का सागर है रो-रो कैसे पार करूँ।।
मरुथल सा मन तपता जाता तृषा तड़पती सीने में
पर विहीन आहत पंछी सा शेष नहीं कुछ जीने में
दूर क्षितिज पर धुँधली आशा अंतिम साँसे छोड़ रही
क़अपना हीरा जब सपना है फिर किससे दरकार करूँ।।
ठूँठा बाग भाग पर रोये शुक-पिक यहाँ नहीं आते
राहगीर सब करुण कहानी आते-जाते कह जाते
शुष्क मृत्तिका सा तन अपना जिसे लकीरें चीर रहीं
निमित्त इसके देव बताओ माँगूँ या इनकार करूँ।।
डॉ. छोटेलाल सिंह ‘मनमीत’