अपूर्णता में पूर्णता लिए
कविता-अपूर्णता में पूर्णता लिए
हां! सच ही तो हैं मैं स्त्री हूँ
गणित की शून्य ही तो हूँ मैं तुम्हारे लिए
मेरा होना भी जरूरी ,पर समय पड़ने पर
संख्या वृद्धि में सहायता मात्र महत्व माना
हमेशा तुम जताते रहे, बताते रहे मुझे चेताया भी
मैं निर्भिज्ञ,नासमझ ,समझ ना पाई आपने गणितज्ञ मन को
मैं समझी, तुम्हारे लिए अनमोल हूँ मैं वैसे ही जैसे
गणित की शून्य बढ़ाती,छोटे स्वरूप को बड़े आकार से
वही अपना महत्व समझती रही मैं तुम्हारे जीवन में
तुम कभी मेरे अपने से बने, तो कभी बिल्कुल पराए से लगे
पर मैं शून्य ही रही ,बिल्कुल अर्थहीन सी
मैं कभी ख़ुशियाँ मन से जी नही पाई कोई अफसोस नही
कभी कुछ पाया भी नही घटाया भी तो नहीं मैंने तुम्हारा
बढाया ही मान तुम्हारा,वंश तुम्हरा, सींच लहू से अपने
पर तुमने कभी बराबर समझा भी तो नहीं
और तुमने हमेशा मुझे पीछे रखा नीचा दिखाया
और मैं शून्य ही रही ,बिल्कुल अर्थहीन सी
शायद डर से कि आगे रखते तो मैं मोल बढ़ा लेती अपना
शायद अपनी एक अलग और विख्यात छवि बना लेती
शून्य होकर भी मैं खुश थी तुम पर समर्पण में,अर्पण में
कि तुम मेरे आस-पास हो शायद कभी तो समझोगे मुझे
कि मुझमे भी जीवटता हैं, साँसे चलती हैं तुम सी मेरी भी
शून्य सी क्षूद्र मै, कुछ ना समझो तो बस आकार ही मानते
और यदि मानो तो साकार सी ही हूँ सदा समर्पण भाव लिए
मैं शून्य अपनी शून्यता में गुम होती गई धीरे धीरे
तुम्हे अपना मानती रही एक भरम में जीती रही मैं
और तुम संख्याओं में उलझे रहे,मोह माया बंधन में
समझ नही पाए अपनी इस बेशकीमती अमानत को
शायद कभी समझ भी नही पाओगे,मन जो लालची हैं
शून्य होकर भी मैं खुश थी तुम पर समर्पण में
क्योंकि मैं शून्य अपनी शून्यता में गुम होती गई धीरे धीरे
मैं स्त्री हूँ पूर्णता लिए ,तुम्हारे लिए अपूर्ण सी
तुमको पूर्ण करती रही जन्मोजन्म!!
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद