अपराजिता
वंश आगे बढ़ाएगी , पढ़ी लिखी होगी
नौकरी करेगी , खर्चों में हाथ बटाएगी
परिवार का ध्यान रखेगी ,
नाते रिश्तेदारी को निभाएगी
सब कुछ करने के बावजूद
न पूरा करेगी तो केवल अपनी
अपेक्षाओं को ।
जिस दिन से देहरी पर पांव रखा
अपना स्वत्व त्याग कर दिया
फिर कस गई उम्मीदों की कसौटी पर
फिर भी न बैठी अपनों की पलकों पर
खटती रही चौके चूल्हे में
फिर भी प्यारी न बनी प्रिय की
ईंट पत्थर के घर को घर बनाया
पर पूरा न कर सकी तो केवल
अपनी अपेक्षाओं को ।
क्या यही मानक है स्त्री होने का
खो दे अपने वजूद को
हर परिस्थिति में मुस्कराती रहे
क्योंकि वो गढ़ी गई है
सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए
खरी नही उतरती है तो केवल
अपनी अपेक्षाओं की सीढ़ी पर
क्योंकि दफन कर दिया है उसने
अपनी अपेक्षाओं को ।
इसलिये उसे त्याग की मूर्ति
देवी , नारायणी न जाने कितनी
संज्ञाओं से विभूषित किया जाता है
सृष्टि की उत्पत्ति में ओज भरने वाली
पापियों का विध्वंस करने वाली
नहीं करती पूरा अपनी
अपेक्षाओं को
फिर भी वह अपराजिता है ।