“अपनों को अपनों से दूर कर देती है”
भूख की आंच ,मजबूर कर देती है।
अपनों को अपनों से दूर कर देती है।
कोई घर छोड़ , विदेश को जाता है।
कोई अपने ही मोहल्ले, मजदूरी कमाता है।
पिता ने ले रखी है , ज़िम्मेदारी घर चलाने की।
थोडी खुशिया थोडी गम में ,साथ निभाने की।
सिलसिला ज़िन्दगी का ,युही चला करता है।
रोटी की तलाश, अक्सर लोगों को मशहूर कर देती है।
अपनों को अपनों से दूर कर देती है।
भूख की आंच ,मजबूर कर देती है।
अपनों को अपनों से दूर कर देती है।
फिक्र, चिंता, कर्ज, ज़िम्मेदारी ,सभी पर है भारी।
फिर भी, पिता निस्वार्थ, इसे निभाता है।
बच्चो की खातिर ,हर तकलीफ में भी मुस्कुराता है।
एक दूजे से होड़ ,अक्सर लोगों को मगरुर कर देती है।
अपनों को अपनों से दूर कर देती है।
भूख की आंच ,मजबूर कर देती है।
अपनों को अपनों से दूर कर देती है।