“अपनों की बर्बादियों का जश्न”
!!अपनों की बर्बादियों का जश्न !!
============================
अपनों की बर्बादियों का जश्न,
आज फिर मनाते है चलो!
अपनों के लहू से लिखी दास्तां,
आज फिर सुनाते है चलो!!
सदियों की परम्पराओं का
निर्वहन जरूरी है।
अपनों का लहू जमीं को
आज फिर पिलाते है चलो।।
कमतर नही यहां
कोई भी किसी से
गैरों के लिए अपनों पर
दाव फिर लगाते है चलो।।
होने दो गर बर्बाद होती है,
कौम क्या फर्क पड़ता है।
स्वाभिमान की सींकों पर हलाल ऐ मुर्ग
आज फिर पकाते है चलो।।
सिर सिरमौर रहे अपना,
कौम का झुके तो क्या।
स्वार्थ की सरहद फिर आज,
किसी अपने को झुकाते है चलो।।
लत माना कि बुरी है,
अपनों के कत्ल की ए कुंवर
रस्म पुरानी है यह क्या करें
आज फिर निभाते है चलो।।
@
कुं नरपतसिंह पिपराली(कुं नादान)