अपने ही तो हैं
??कविता??
अपने ही तो हैं
हम बरगद बनके,
अपनों को छाँव बाँटते रहें,|
थोड़ा -थोड़ा करके हमे,
अपने ही काटते रहें,|
फूल बनके खुशबू का,
अपनों को खुशबू बाँटते रहें,|
खुशबू कम हो गयी हमारी,
थोड़ा-थोड़ा करके हमारी कलियों को अपने ही काटते रहें,|
बादल बरसतें नहीं हमारें
कहने से मगर,
हम उनकी ओर झाँकते रहें,|
सूखें पतछड़ और पेड़ों को,
हम अपने पीने का पानी
बाँटते रहें,|
हरयाली पा कर वो ही ,
हमारें खून को चाकतें रहें,|
गलती हमारी नहीं थी,
फिर भी हमें अपने ही डाटते रहें,|
हम उस डाॅट में अपनी,
गलतियों को छाँटते रहें,|
सूरज चाँद की ओर देखकर,
अपने दर्द को दाबते रहें,|
नये जख़म देने के लिए,
हमें अपने ही थोड़ा-थोड़ा करके
काटते रहें,|
हम बरगद बनके अपनों ,
अपनों को छाँव बाँटते रहें,|
थोड़ा-थोड़ा करके,
हमें अपने ही काटते रहें,||
लेखक—Jayvind singh