अपने नाम का भी एक पन्ना, ज़िन्दगी की सौग़ात कर आते हैं।
कभी-कभी सपने भी, आँखों के कसूरवार बन जाते हैं,
जब इंद्रधनुषी रंगों से, कोरे मन की सतह को रंग जाते हैं।
क़दमों से जमीं छीन, बादलों का पंख दे भरमाते हैं,
रौशनी की बाढ़ दिखा, चेतन मन को चुंधियाते हैं।
कश्ती में बिठा, उस पार ले जाने की कसमें खाते हैं,
और ज़िन्दगी के अध्यायों को, बिलकुल सहज़ सा प्रतीत करवाते हैं।
फिर एक दिन सपने, अपनी हीं आँखों में टूटकर बिखर जाते हैं,
और वही टुकड़े पनाहगार आँखों को ज़ख़्मी कर जाते हैं।
हसरतों के पंख आसमां में हीं कुछ ऐसे जल जाते हैं,
की गिरते हुए वो राख बन, बंजर भूमि का कारण कहलाते हैं।
ख्वाहिशों की लाश देख ऐसे, व्याकुलता की चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं,
की अपनी कश्ती को मझधार में, स्वयं के हाथों हीं डुबाते हैं।
मन्नतों के दीयों को जब, अपने समक्ष बुझता पाते हैं,
तो अपने हीं घाव कुरेदकर, उसे और भी गहरा कर जाते हैं।
फिर कभी अँधेरी खाई में, एक रौशनी टिमटिमाती देख आते हैं,
उम्मीदों की टूटी डोर को, आस्था के भाव से सजाते हैं।
हौसलों को बैशाखी बना, लड़खड़ाते क़दमों का सहारा बन जाते हैं,
और नए दृष्टिकोण से, नयी मंजिलों को देख मुस्कुराते हैं।
ऐसे हीं टूटते-बिखरते ज़िन्दगी को जीना सीख जाते हैं,
और अपने नाम का भी एक पन्ना, ज़िन्दगी की सौग़ात कर आते हैं।