अपने चेहरे पे।
अपने चेहरे पे जुल्फों को पड़ा रहने दो,
रौशनी गर्दिशों में और अँधेरा रहने दो!
चाँद खुद भी शर्मायेगा देखकर तुमको,
कम से कम आँखों को ही खुला रहने दो
मुझ दुश्मन से मिलो तो रौनक के साथ
दिल में रखो हसद मगर रिश्ता रहने दो
हैं जमाना मुन्तज़िर तेरे तीरे-नज़र को
शौक़ गर्दिश में पड़ा हैं तो पड़ा रहने दो!
बख्शो महफ़िल को वकार-ओ-ज़ीनत से,
खुद तुम शम्अ रहो मुझे परवाना रहने दो
तेरे कूचे से निकलकर भला जाए कहाँ,
तवक्को वस्ल की हैं और आसरा रहने दो
उम्मीद जगाओ न कोई ख्वाब दिखाओ,
मैं तन्हाई में मुब्तिला हूँ ‘तनहा’ रहने दो।
तारिक़ अज़ीम ‘तनहा’