अपने ख्वाबों को खुद जाकर
अपने ख्वाबो को खुद जाकर के मैं सजाऊंगा
जिंदगी मिली है तो इसको जन्नत मैं बनाऊंगा
तिरंगा क्या हाथ में लेना जब दिल में हिन्दुतां है
नामुमकिन को मुमकिन कर के भी दिखाऊंगा
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
अपने ख्वाबो को खुद जाकर के मैं सजाऊंगा
जिंदगी मिली है तो इसको जन्नत मैं बनाऊंगा
तिरंगा क्या हाथ में लेना जब दिल में हिन्दुतां है
नामुमकिन को मुमकिन कर के भी दिखाऊंगा
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से