अपने अपने कटघरे हैं
ज़िन्दगी के साज़ सारे बेसुरे हैं
फिर भी कितने ख़्वाब आंखों में भरे हैं
हर किसी को कामयाबी चाहिए
हर किसी के अपने-अपने पैंतरे हैं
यह तरक़्क़ी भी कोई कमतर नहीं है
मुल्क में अब ख़ूब सारे मसखरे हैं
एक टूटा आदमी कब सोचता है
मरुथलों में पेड़ क्यूं इतने हरे हैं
हर कोई आज़ाद होना चाहता है
हर किसी के अपने-अपने कटघरे हैं
— शिवकुमार बिलगरामी —