अपनी मिट्टी की खुशबू
आज भी अपने गांव की मिट्टी मन को बहुत लुभाती है।
रह-रह कर यादों में बरबस खींच मुझे ले जाती है।।
गांव , खेत, खलिहान छोड़कर दूर देश क़ो आई हूं,
मां के हाथ बनी चूल्हे की रोटी बहुत लुभाती है।
मां- बाबा भैया- बहनों से दूर अनजान जगह पर आई हूं,
रिश्तो की मीठी सौगातें, हर दिन मुझे रुलाती है।
गुड्डे गुड़िया का वह खेल सखियों के संग बीते पल,
आज भी बचपन की वो यादें अपने पास बुलाती है।
कहने को तो सब कुछ लेकिन वह प्रेम नहीं मिलता ,
अपनेपन की सिसकी सीली लकड़ी सी सुलगाती है।
‘पराए घर की रोटी’ का सबक जब तुम मां!देती थी,
शब्दों में छिपी तेरी चिंता ,पाठ नया सिखलाती है।
बारिश में बूंदों के संग उठती मिट्टी की वो सोंधी खुशबू,
मन को घायल बेचैन करे वह मायके तक ले जाती है।
अपने गांव ,देश की मिट्टी का मैया ! कोई मोल नहीं,
तेरी गोद में सर रखकर ,सोने को बहुत अकुलाती है।