अपनी पीड़ा किसे कहूँ
शान्त पड़ गए चित्त चितेरे,
भाषा की परिभाषा क्लान्त,
भग्न देह पर शेष बचा है,
यौवन ज्वर का एक प्रमाण,
अगणित भूधर ख़ाक हो गए,
इसे देखकर किसे सहूँ,
हे हनुमत!अब तुम्हें छोड़कर,
अपनी पीड़ा किसे कहूँ।।1।।
निरालम्ब अम्बर पर निर्भर,
वायु कणों की वीणा को,
यथा प्रसूनमाल शोभती,
सुग्रीवा महासुशीला को,
ज्वर से पीड़ित जरा व्याधि की,
और कहानी कितनी सुनूँ,
हे हनुमत!अब तुम्हें छोड़कर,
अपनी पीड़ा किसे कहूँ।।2।।
उचित स्पष्ट और नश्वर उपवन,
धिक्कार रहा धिक्कार रहा,
हर पथ पर कोने-कोने में,
हर कोई यहाँ पुकार रहा,
विषय विकार और झंझट की
कितनी गाथाएँ और गढूँ,
हे हनुमत!अब तुम्हें छोड़कर,
अपनी पीड़ा किसे कहूँ।।3।।
शाश्वत और उल्लासमय जीवन,
कहाँ बसा है इस जग में,
कष्ट भोगता वह योगी भी,
जिसके प्राण-अपान मिले,
कहाँ बसा है वह अमृत,
अवगाहन कर जिसमें और बहूँ,
हे हनुमत!अब तुम्हें छोड़कर,
अपनी पीड़ा किसे कहूँ।।4।।
©अभिषेक पाराशर??????