अपना खून
जब तुम कुछ पल को रोए थे ।
वो दोनों सारी रात न सोये थे ।
उठा गोद नंगे पांव ही दोनों दौड़े थे ।
वैध हकीम डॉक्टर सब टटोले थे ।
किए सारे पुण्य समर्पित एक पल में ,
एक दुःख की खातिर ख़ुद को वो भूले थे ।
कैसे वक़्त बदलता है ,
होले होले चलता है ।
फूलों में भी काँटा मिलता है ।
चुभता है जैसे ही ,
फूलों को छूने का मन करता है
आज खड़े असहाय बहुत ,
फिर भी देख देख होते खुश ।
सोचें बस गुपचुप गुपचुप ,
देते आएं है आज तक कुछ न कुछ ,
माँगे कैसे आज उनसे वो कुछ ।
शायद यही नियति यही भाग्य है ,
अपने खून को अपने खून से हुआ बैराग्य है ।
…… विवेक ……