#रुबाइयाँ
तृप्त हृदय जो करता मेरा , काव्य-शौक़ है नज़राना।
दूर तन्हाई कर देता है , लिखने बैठूँ अफ़साना।।
डूबा भावों के सागर में , खोज़ूँ शब्दों के मोती;
हार बनाकर इनसे मनहर , हो जाता खुद दीवाना।।
अपनापन अंतर से आता , अंतर सभी भुला देता।
मिलने को आतुर कर देता , चाहत प्रेम सिला देता।।
मोहब्बत क्या होती है ये , देख सूर्य संस्कारों में;
चाँद-धरा उर अपनेपन में , हँसके रोज खिला देता।।
मोहब्बत का झूठा दावा , ये मानव क्यों करता है।
छल से आँसू आहें देकर , निज घर ख़ुशियाँ भरता है।।
छलने लगे धरा अंबर तो , साँस नहीं ले पाएगा;
होकर शून्य विवेकी मानव , ज़रा नहीं पर डरता है।।
प्रेम जगाओ अपने उर में , तब मानव कहलाओगे।
रहे झगड़ते आपस मे ही , तो दानव हो जाओगे।।
सब जीवों में श्रेष्ठ तुम्हीं हो , भूल गये ये तुम कैसे;
गीत मधुर हर होगा तब ही , जब सुर ताल मिलाओगे।।
#आर.एस.’प्रीतम’
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