अन्तर्द्वन्द्व
जब सभ्य समाज में इंसानी विषधर अपना फन फैलाता है
जब राजनीति का छलिया दानव लोगों को छलने आता है
जब अपना भारत बँटा हुआ हो धर्म जाति के टुकड़ों में
जब फँसा हुआ हो अन्न प्रदाता तन मन धन के दुखड़ों में
सीमा रक्षक की विधवा इंसाफ की ख़ातिर भटक रही हो
नारी शील बचाने को जब अपना मस्तक पटक रही हो
जब भूखा बचपन नंगा और बीमार दिखाई पड़ता हो
जब सूरज का तेजस्वी बेटा लाचार दिखाई पड़ता हो
जब सिंहासन की पावन पुतली अपना मोल गँवाती हो
जब प्रतिदिन वीर जवानों की अर्थी सज कर आती हो
जब ये सारा प्रश्न घुमड़ कर मन मस्तिष्क पर छाता है
इन प्रश्नों से मन ही मन लड़ना अन्तर्द्वन्द्व कहलाता है