अनुभव
परिवर्तन जीवन का नियम है पर क्यों लगता है कि जीवन एक सांचे में ढल गया है।कुछ नया नहीं सब रोज़-सा।सामने वही एक-से थके चेहरे
नेत्र अलसाये से!सब मिट्टी के ढेले समान है जो छूते ही बिखर जाएं!कुछ क्षण के लिए क्यों न सब भूला दिया जाए पर शायद ऐसा कुछ मुमकिन नहीं।रोज़ एक अनिवार्य विवशता है जिसे ना छोड़े बनता है और ना ग्रहण करते!सब एक-दूसरे को देखते हैं मूक रहकर उपहास करते हैं !लगता है अनुभव के पर्दे में कल्पना का रूप साकार हो उठता है।
मनोज शर्मा