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20 Jan 2019 · 1 min read

अनुनय

हे माते
कलियुग
भरी विषाक्तता
दूषित समाज
विकृत संस्कृति
हे भगवती ! कल्याणी!
हर पग हर क्षण
है तेरा अस्तित्व
अपरिहार्य
कंटकीय पथ के शूल
पीड़ा दे रहे
निरीह जीवात्माओं को
विविध रूपों में विचरते
दानव दैत्य शुम्भ और निशुम्भ
काली तू पी कर रुधिर
अधमों का
कर परित्राण निर्दोषों का
हे भैरवी! हे चंडिका !
तू निष्णात
हम मानव अज्ञानी
दे आश्रय की छाया
जगदम्ब हो अवतरित
प्रतीक्षा में
रीते चक्षु
शुष्क हैं कंठ
निःशब्द जिव्हा
सुन
आर्त्तनाद आप्लावित उर का
हे महागौरी!
आ भी जा
भक्त की पीर
मिटा मेरी मैया।

रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

Language: Hindi
234 Views
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