अनुनय (इल्तिजा) हिन्दी ग़ज़ल
दूर इतना भी अब न जाओ तुम,
सुनो मेरी भी, कुछ सुनाओ तुम।
सबसे मिलते हो मुस्कुरा कर ही,
मुझपे भी, कुछ तरस तो खाओ तुम।
अपनी ज़ुल्फ़ेँ न यूँ खोलो छत पर,
दिल घटाओं का ना जलाओ तुम।
वो भी क्या ख़ूब इक मन्ज़र होगा,
बारिशों मेँ कभी नहाओ तुम।
गर क़रीने का शौक़ है इतना,
घर मिरा भी कभी सजाओ तुम।
चाँद भी तो सुना, पशेमाँ है,
रुख़ से चिलमन ज़रा हटाओ तुम।
बुलबुलों को भी इन्तज़ारी है,
गीत मेरा भी कभी गाओ तुम।
तितलियों को भी रश्क़ है क्यूँकर,
नृत्य करके कभी दिखाओ तुम।
ख़लफ़िशारोँ को ख़त्म है होना,
रार इतनी भी ना बढ़ाओ तुम।
रूबरू मिल अगर नहीं सकते,
आ के स्वप्नों मेँ ना सताओ तुम।
दर्द देते हो, दवा भी दे दो,
रस्मे-उल्फ़त भी तो निभाओ तुम।
दरमियाँ कुछ न अब रहे “आशा”,
आज इतने क़रीब आओ तुम..!
अनुनय # “इल्तिजा” , request
क़रीने # सलीका, व्यवस्थित रहन सहन आदि, orderly arrangement, to keep things tidy etc.
पशेमाँ # लज्जित, ashamed
चिलमन # पर्दा, curtain
रश्क़ # जलन, jealous
ख़लफ़िशार # मतभेद, differences
रस्मे-उल्फ़त # प्रेम के (महान) तौर तरीके, the (great) traditions of love
दरमियाँ # बीच मेँ, in between
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